समय की पहचान अगर नाम पता न हो
सुबह-शाम जगते-सोते अपने बुत को आईने में देखते
कि समय का पुल्लिंग काल होता है कहने के लिए
अनुसार लिखूँ अवसर उसे कि गोचर में उपयुक्त काल
कह कर कुछ नज़ूमी दौड़े आते हैं शब्द की पहचान करने कि
गिर कर घुटने पर लग गई गुम चोट भाषा में,
देह की जिल्द में स्मृति उलटते-पुलटते मौजूद नहीं है वह पन्ना हमेशा
दुपहर की चमक में फीके पड़ गए सारे विचार
वह तारा नहीं सूरज उगता है दैनिक फिर जग उठने और याद दिलाने
जिसकी रोशनी में दिन को अंत में तीसरे पहर लिखने एक पूर्व विराम
उजले संकट को विचारने कई बार कि आशा भी एक भय है,
अपनी छाया पर झुका अनुपस्थित यह चुपचाप कोने में मेरी स्थिति एक ख़ाली कुर्सी-सी
मैं कर चुका समर्पण पराजय ख़ुद से विरोध कोरे काग़ज़ पर लिख कर,
मन के कोलहाल घुटती अभ्युदय रिसती घनीभूत पीड़ाएँ नए देश-काल की
आशा करते मैं और तुम बनाते अपने अपने जीवन के नक़्शे में
एक-एक बिंदु जो एक रेखा से बने कि कह सकें ज़मीन के एक टुकड़े को
वह मेरा घर वहाँ मेरा देस आब-ओ-हवा बोतलबंद
जहाँ नागरिक सहेजकर रखते टूटा-फूटा अपना सफ़री संदूक़,
अपने मील के पत्थरों को तोड़ते-बदलते सच की निर्वासित सीमा को
बिना संकोच स्मृतियाँ किताबों में बुकमार्क भूलने की चीज़ पुरखों की सीख
आले पर रखी है कबके, वे कहते
जाओ अपना समय मत भूलो, आना फिर घर
भले ही थे प्रेम और भय एक साथ
थोड़ी दूर संबंध रहे और आत्मीयता ताज़ा वापस
औरों का जिया कहते कान भर एक सलाह मैं ठिठकता बदलते रास्तों पर,
इतिहास का मंथर ठहराव यह सबका उथला सच साकार कहीं हो जाए
यह नई सूक्तियों की कलम शक की नई जड़ों में लगाने का मौसम,
उनकी आत्ममुग्ध तिरछी मुस्कान चुनती एक चेहरा जो
किसी एक पराए को मैं ही रख लूँ समीप बैठक में सुदूर अपनों से
परंपरा की गति ही ऐसे संस्कारी जुग के नाम पते
विधि कितनी हैं बंद हथेली में दुख की छूने भर बचे रहे का अनुमान
थोड़ा एक साँस भर लेने इसी धरती पर आयास
- रचनाकार : मोहन राणा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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