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कि जैसे गद्य की खाल ओढ़े कहीं एकांत के स्पर्श में रहती है कविता

ki jaise gadya ki khaal oDhe kahin ekaant ke sparsh mein rahti hai kavita

आमिर हमज़ा

आमिर हमज़ा

कि जैसे गद्य की खाल ओढ़े कहीं एकांत के स्पर्श में रहती है कविता

आमिर हमज़ा

और अधिकआमिर हमज़ा

    अपने एकांत से प्रेम करो और इसकी पीड़ा को सहन करो—
    यह तुम्हें कविताएँ लिखने का कारण देता है—

    ~ रेनर मारिया रिल्के

    एक

    माना की तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं

    ~ अल्लामा इक़बाल

    वह आँखों का मल्लाह था—मल्लाह जो कभी कभी पलकों की डोंगी पर बैठ उसके आने न आने का इंतज़ार यूँ ही किया करता—रात होती और बस यूँ ही होती जाती—इंतज़ार होता और बस यूँ ही होता जाता—पलकों की देहरी पर खड़े एक हरे पेड़ से सटे लैम्प पोस्ट से एक कम पीली उदासी बेढंग हो आज़ादाना स्वर में झरती और बस झरती जाती—इंतज़ार गहराता और बस गहराता जाता—रात को हरसिंगार के फूल रोज़ की तरह खिलते और रोज़ जैसी सुबह की तरह ज़मीं के माथे पर महकने लगते—सड़कें हर सुबह गुलज़ार होने का अभिनय करतीं और शाम को एक फूँक मार दिए गए चिराग़ सी बुझ बुझ जातीं—यह ऐसा ही एक मुसलसल मरता हुआ अक्टूबर था—मेरे भीतर का मल्लाह कहता है मुझसे—
    अक्टूबर मरी हुई स्मृतियों की डोंगी है
    पलकों से बँधी हुई...

    दो

    मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है

    ~ मिर्ज़ा ग़ालिब

    दरअसल उसे ख़्वाब पर कोई यक़ीन था ही नहीं—जैसे ख़्वाब को ख़्वाब की तरह—जैसे मछलियों को ज़मीन की तरह—जैसे कुकनूस को कहावत की तरह—लेकिन ख़्वाब की ठुड्डी पर चस्पा नुक़्ते पर वह ख़ूब ख़ूब यक़ीन करती—ख़्वाब जैसे नींद पर—मछलियाँ जैसे लहरों पर—कुकनूस जैसे बारिश पर— …कहा था उसने एक धुआँ-धुआँ अलसाई-सी घिर आई शाम में—
    यह नुक़्ता दश्त-ए-ख़िज़ां से झाँकता वह महताब है जो हमारे होने का गवाह है
    गवाह जिसके न होने से एक रोज़ हम एक नामालूम यात्रा पर निकल चुके होंगे
    बीत चुके होंगे पैरों के कहीं बहुत पीछे छोड़ दी गई सड़क की तरह
    …और एक रोज़ जब कतारबद्ध अपने अपने बिलों की ओर चली जा रही थीं चींटियाँ पीठ पर अपनी रखे हुए राशन ख़्वाब की ठुड्डी पर चस्पा नुक़्ता शाम-ए-फ़िराक़ में कहीं आँसुओं के बियाबाँ में गुम गया- एकदम तय किए गए की तरह अलग दिखे बग़ैर…लेकिन अलग दिखे बग़ैर आज तक कौन अलग हो सका है भला! आज मैंने आँगन-ए-तसव्वुर में ख़्वाब को ख़याल से मुख़ातिब पाया— ख़्वाब का ख़याल से कहना है कि वह हमेशा से उस अनाम की आँखों में—
    जी भर ओस होना चाहता रहा…
    जी भर ख़ाके-रहे-जानाँ…
    जी भर महफ़िल-ए-सुख़न…
    जी भर मसर्रत…
    जी भर हाथ…
    जी भर ग़मख़्वार…
    वह जो एक ऐसी नाव पर सवार थी जिसमें नामालूम कितने कितने पैबंद लगे थे आज़ुर्दगी के…ख़ामोशी के…तरतीबी के…बेतरतीबी के…कहे के…अनकहे के...और नामालूम कितने कितने निशान थे एक अधूरी छोड़ दी गई यात्रा के…
    ख़्वाब अब सच का महताब होना चाहता है
    जाना चाहता है एक तवील यात्रा पर
    न नाव पर नहीं
    ख़याल पर सवार होकर—

    तीन

    खुल गई आँख तो ताबीर पे रोना आया

    ~ शकील बदायूनी

    मैं ख़्वाब में देखता हूँ तारों का चाँदनी की चाश्नी में घुल घुल जाना—तुम बड़ी मग्मूम आवाज़ में मुझे अपने क़रीब से क़रीबतर बैठने को कहती हो—आसमान एक सुर्ख़ करवट बदलता है दफ़अतन कि एक (अ)पूर्ण को ठहराव का सबब मिल सके या साहिल को समंदर सा कुछ…या कि वर्तमान जेब में खनकते सिक्कों सी स्मृतियों को बुझा सके…यों भी शब्दकोशों की स्मृतियों में अर्थ के सिर पर टंगा ‘र’ कब से अधूरा है, बिलकुल तुमसे ख़्वाब में मुख़ातिब हुए की तरह—

    चार

    बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे

    ~ जौन एलिया

    पेड़ की तरह खड़े हैं पेड़ यूँ ही मय-हवा में हवा का आभास भर है—अँधेरे की गिरफ़्त में है रोशनी- जुगनुओं ने कर दिया है आज टिमटिमाना स्थगित मार दिए गए जुगनुओं की याद में- चाँद थककर छिप गया है ठेलों पर सो रहे मज़दूरों के ठीक पीठ पीछे नज़र के बिलकुल सामने- ख़ुद ही ख़ुद की परछाईं पर भौंक विस्मय से भरा हुआ है एक कुत्ता अकेला—दिनभर के थके हारे ऑटो कतारबद्ध सुस्ता रहे हैं देह छिली सड़कों पर जंज़ीरो से बँधे खुलने की उम्मीद लिए—फ़ुटपाथ पर कंबल ओढ़े पड़े आदमी की बग़ल में पड़ा एक कभी कभार का शराबी गुनगुना रहा है अपना ग़म ग़ुलाम अली के बहाने—
    तेरी गली में सारा दिन दुःख के कंकर चुनता हूँ…
    अपनी धुन में रहता हूँ…
    अपनी लहर है अपना रोग दरिया हूँ और प्यासा हूँ…
    अपनी धुन में रहता हूँ…
    ...और राजधानी के तिराहे पर खड़ी वेश्याओं की धमनियों में बहता ख़ून साँस के पुल पर रुककर सुस्ता रहा है दो घड़ी नींद में जाने से पहले—रात की दहलीज़ पर दस्तक देती खड़ी है सुबह मुठ्ठी में दिन लिए—झाड़ू लगाए जाने की फ़िक्र में ले रही है फ़िक्रभर नींद… माली दुःख की कोरों में बहते पानी से भरता जा रहा है हजारा अपना-कबूतर काँधों को मुंडेर समझ लड़ा रहे हैं अपनी चोंच विदा लेने से पहले—बलात्कार हत्या धोखाधड़ी जालसाज़ी जैसे शब्दों का राज क़ायम है चाय की टपरी पर एक बुज़ुर्ग के चुड़े हुए हाथों में खुले अख़बार में रोज़ की तरह रोज़—दीवार पर टँगी श्वेत-श्याम तस्वीर में चार्ली चैपलिन की बग़ल में बैठा बच्चा तलाश रहा है न जाने क्या रोज़ की तरह रोज़—मुँह छिपाए किसी के ख़यालों में मशग़ूल संगीत को उँगलियों से स्पर्श करती जाती फ़्रॉक वाली लड़की की पीठ पीछे रोज़ की तरह रोज़ बीते हुए पर डालता हुआ पर्दा निकल रहा है रोज़ का सूरज रोज़ देखना बचाए हुए अपना
    …रोज़ की तरह रोज़ कुछ नए की उम्मीद में जीता हुआ—

    पाँच

    और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा 

    ~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

    न दीखना कितना अजीब है दीखने जैसा…
    …कि मैदान-ए-जंग में हताशा का रंग कैसा होता है? कि आसमान से बारिश का मुखौटा पहन मौत कैसे बरसती है साल-दर-साल? कि क़ब्र में पैदा हुए बच्चे की स्मृतियों का रंग कैसा होता है? कि कैसा होता है एक व्यक्ति की सनक के चलते एक दूसरे व्यक्ति को आदमखोर कुत्तों से नुचवा देना? कि गिद्ध बच्चों के चेहरों पर सूख गए आँसुओं पर बैठ आँखें कैसे फोड़ते हैं? कि एक युवा लड़की बंद कमरे में दरीचे की दरार से देह के लिए साँस कैसे जुटाती है रोज़-ब-रोज़?
    जीवन, कि जैसे कुछ दीखा कुछ अनदीखा सा…
    …कि एक समलैंगिक पुरुष सैनिक गिल्बर्ट ब्रैडली का प्रेम-प्रसंग वर्जित—कि आँखों में माँओं की कभी न ख़त्म होने वाले इंतज़ार का इंतज़ार- कि बाप के छिले हुए कांधों पर रखा क़र्ज़ का भारी गट्ठर- कि बिन ब्याही बहन के चेहरे पर झुर्रियों का बदनुमा जाल होठों पर पपड़ी- कि जंग में गए सिपाही की बीवी के दिल में हर पल बेवा हो जाने का डर- कि बलात्कार कर दूर कहीं बियाबाँ में फेंक दी गई औरतों के जिस्म पर बजबजाते कीड़े- कि ज़ईफ़ी में अपनी नदी में रेता छानती औरत के ख़याल और दिन-ब-दिन जवान होती जाती अपनी बेटी के साथ नीम की दातून बेचते बुज़ुर्ग बाप के माथे पर उभरती हुई सलवटों में हरदम अगले दिन की भूख—
    कि दीखना जैसे न दीखना धीरे-धीरे…
    …कि परवाज़ करते परिंदे आसमान से ज़मीं की क्या तारीफ़ करते हैं कि वह हर साल बरसे और मन को हरा कर जाए? कि झूठी इज़्ज़त के लिए पेड़ पर लटका कर मार दिए गए प्रेमी-युगल को देख पेड़ की आत्मा की चीख़ कैसी होती है? कि पेड़ काटती कुल्हाड़ी की लकड़ी कैसे मिलाती है नज़र पेड़ से? कि पेड़ से झरता आता पत्ता कहाँ ठहरता आता है ज़मीन का बोसा लेने से पहले? कि किस पुल पर सुस्ताते हैं बादल पहाड़ों से मैदान की ओर कूच करते? कि फ़ुटपाथ पर पलते बच्चे किस भाषा में करते हैं दुआ अपने मानने वाले से कि सपनों में उनके ठोकरें न आए दर-दर की? कि धूप जाड़े में किस मचान पर लगाती है बिस्तर बस्तियों में अलाव जलने से पहले?
    माज़ी में कई कई बार बसे-उजड़े शहर की एक इमारत में
    तिमंजिले पर दीखा अनदीखा टँगा कवि
    सोचता है बार बार कई बार
    दीवार घड़ी को समय से मुठभेड़ करते देखते हुए—

    स्रोत :
    • रचनाकार : आमिर हमज़ा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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