खेल
khel
संदर्भ : गुजरात, 2002
निर्जन हो चुकी गलियों में
अब सिर्फ़ सन्नाटों की सरगोशियाँ थीं
सभ्यता का अवसान अभी-अभी हुआ था...
सन्नाटों में बीते सालों की सिसकियाँ लिपटी हुई थीं
और सिसकियों से एकात्म होती हुई
एक पुरसुकून बेबसी थी...
इसी बेबसी के कवच में हम
अपनी आदिम बेहयाई को छुपाया करते थे
और हर एक बार
मौक़े पर पकड़े जाने से बेदाग़ बच निकलते थे
यह खेल न जाने किसने ईजाद किया था
कितनी पीढ़ियों से खेला जा रहा था इसे पता नहीं
मगर हमने
इसे अभी-अभी खेलना सीखा था
आने वाली पीढ़ियों के लिए तो यह खेल
हवा और पानी से भी ज़रूरी आसव था...
इस चिरंतन खेल के दस्तूर भी अजब थे
इसे शुरू होने के बाद से भी खेला जा सकता था
और ख़त्म होने से पहले ही
इस खेल से बाहर हुआ जा सकता था
मगर विडंबना यह थी
कि इस खेल को नहीं खेलने की कोई सूरत नहीं थी
इस खेल में सभी शरीक थे...
वे, जो इस खेल को खेलते थे
और वे, जो इस खेल को देखते थे
और वे, जो इस खेल की बातें करते थे
और वे, जो इस खेल के बारे में सोचते थे
और वे, जो इस खेल के प्रति तटस्थ थे
इससे घृणा करने वाले
तो इस खेल के माहिर उस्तादों में गिने जाते थे
यह खेल, दरअसल सिर्फ़ खेल नहीं था
यह तो किसी विलुप्त होती सी स्मृति को
एक शाश्वत ख़ामोशी के तहख़ाने से
निकाल बाहर करने के बहाने रचा गया एक प्रपंच था
जबकि हम तो अपने विचारों के लिए
बचपन की पतंग सा पूरा आकाश चाहते थे
हम तो खेल-खेल में ही रक्तस्नात हुए
अपने अस्तित्व के लिए केवल यथास्थिति चाहते थे।
- रचनाकार : प्रभात मिलिंद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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