कविताएँ
kawitayen
एक
आज कविताएँ सग्रंह से अलग हो गई हैं
जैसे अपना छत्ता छोड़ मधुमक्खियाँ उड़ गई हों
वे कहाँ गईं किसी को कुछ नहीं कहा
अब काव्य-पोथी ख़ाली है
अकेले खेलती
अपने नाम से
दो
तुम्हें अलग होना हो तो उस तरह अलग होना
जैसे पका फल पेड़ से अलग होता है
—अनायास—
हर साँस में सवेरा उतर सके
हर गिरता हाथ सँभल सके
खिलना ऐसे
लिखना ऐसे
शब्द और शून्य में
भाषा और जीवन में
आकृति की कृति में
स्वयं निराकार होते हुए
तीन
आग में वह शांति नहीं मिलेगी जो सुबह ओस की बूँदों के रूप में झिरती है
इसीलिए मैं बाग़ की दूब पर चलते हुए नंगे पाँव था जबकि साथ के लोग पाद-त्राण पहने हुए थे
मेरे पैरों से वे सब दृश्य आँखों के आगे नाचने लगे थे
जिन्हें अब तक भूला हुआ था
जीवन ऐसा था कि कोई कथा लिखने
और माथे का लेख पढ़ सके
—कविताएँ?
नहीं, उन्हें छोड़ देना चाहिए
और प्रेम को भी
वे रिक्त स्थलों की पूर्ति हैं
दोनों के बीच मैं साँस की तरह आता-जाता रहा हूँ
अपने में छिपे को धूप दिखाते हुए
छोर के अंत पर खिले फूलों को सींचते हुए
ऐसी किसी के इंतज़ार में जिसके चेहरे पर
दो आँखों की जगह वही फूल होंगे
वह मुझे दूर देश ले जाएगी
देहली पर रखे मेरे पाद-त्राण वहीं रह जाएँगे
और उन्हें फिर कोई पहनेगा नहीं
कभी
चार
जिस चलचित्र में कभी छलती नहीं
उस रूप-कथा के अंतिम परिच्छेद में
हँसती हुई वह
रोशनी का विलोम है
जिसे तज देना है
काकविष्ठा की तरह
अलम के लिए
पाँच
पेड़ पर फल कहता है—
मुझ में अब और पकना शेष नहीं है;
मैं पूरा पक गया हूँ
आओ, मुझे तोड़ो
डरो मत
लो, पूरा
हूँ
- पुस्तक : अक्सर पत्रिका, अंक : 50-51 (पृष्ठ 148)
- संपादक : हेतु भारद्वाज
- रचनाकार : पीयूष दईया
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