जीव की अल्पशक्ति
शात युवती एक पति (उड़िया भागवत)
एक :
इतने सपनों के लिए रातें कहाँ
दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए?
खड़ा रहता है पेड़ अपनी जगह
लक्ष्मण-रेखा लाँघ जाता नहीं कहीं
नए पत्तों, फूलों में सुनाई देती है हँसी उसकी
पतझड़ में रोता है धाड़ें मार-मार
जड़ें उसकी अँधेरे में सागरपुत्रों-सी
ढूँढ़ती रहती हैं कुछ काली मिट्टी कुरेदती
सुनसान हवा और आकाश में अँगुलियाँ
ढूँढ़ती रहती हैं कुछ टोह-टोहकर
कितनी सुंदर चिड़िया
न जाने किस देश में उड़कर आती है
गीत सुनाई देता है उसका दिन भर
कोमल सुबह और करुण साँझ को
फिर क्या होता है अहा,
वह कहाँ उड़ जाती है!
पेड़ रटता रह जाता है उसका गीत
काश! एक बार लौट आती वह बातूनी
उसकी राह तकते-तकते
पत्ते झड़ते चले जाते हैं
छाल भी मोटी होती चली जाती है
दिन बीतते चले जाते हैं
मैं तो उस पेड़ का साथी हूँ बचपन का
उसकी जड़ के अँधेरे अतल का
अभिशत साहसी जीवनचर्या
मेरी शिराओं के रक्त-प्रवाह में
आकाश के मौन में
व्याकुल हताश उसाँसें उसकी
बजने लगती हैं
मेरे प्राणों के हर पर्दे में
जी करता सब छोड़-छोड़कर
कंधे पर लादकर ले जाता उसे
जैसे शिव की गोद में सती
सबकुछ दिखाता उसे
पहाड़, समुद्र, नदी, गाँव,
रोग, शोक, ज़रा, व्याधि, जन्म-मरण
रंग-बिरंगी चिड़ियाँ
तरह-तरह के उन्माद भरे सपने
दृश्य के बाद दृश्य कई
दिन के बाद रात और
रात के बाद दिन, फिर दिन
दो :
गौरैया से मिला अचानक
कैस्पियन सागर किनारे
फुर्र से उड़कर आती है
मेरी अर्थहीन बातों में घोंसला बनाती है
किचिर-पिचिर करती है
मेरे सूखे शब्द उसी में
आषाढ़ के बादलों की तरह झुक जाते हैं
रस और अर्थ के बोझ से
मेरे दुःख का बोझ उठाकर
अपने नन्हें डैनों पर रखती है
लगता अगले ही क्षण
दुलराएगी वह मुझे शायद
मुग्ध हो देखती मेरी आँखें की ओर
और सहसा पूछती—
‘‘निश्चित ही नहीं पहचानते;
मैं हूँ परनतनी
उस गौरैया की जो तुम्हारी सहेली थी
तुम्हारे गाँव की फूस की कोठरी में
ऊपर से तिनके और फूस
जानबूझकर गिराकर और
तरह-तरह से नृत्य करके
तुम्हें अन्यमनस्क करती थी
यहाँ तक कि परीक्षा के दिनों में भी
मेरा प्राण-पाखी समझ जाता उसकी भाषा
तुच्छ समझता अणिमादि अष्टवर्ग सिद्धियों को
उसकी आँखों में देख
मेर अंदर सूर्य
जब पश्चिम आकाश में ढलता
विदाई का आयोजन दिख जाता अस्ताचल में
मन और हृदय जलता
संताप और मनस्ताप के तुषानल में
वह कहती—नहीं, नहीं
दुःख नहीं, मृत्यु भी नहीं
तीन :
जो जला जाता है
पल भर भी रुकता नहीं
जो रुक जाता है
कितनी ही मिन्नत करने पर भी
एक शब्द तक कहता नहीं
उसके लिए तो शब्द चाहिए
आकारहीन अशब्द शब्द
शब्द जो यंत्रणा के विष के लिए उपचार है
अपराह्न लटका रहता है आकाश से
थकान और विषाद जम जाते हैं छाती तले
आँखे लाल किए निकलता है सूर्य
छतरी-छड़ी लिए
नील नदी भीगी-भीगी आँखों से
सहसा बुलाती है
अल्हड़ किशोरी
और मुझे लगता
अप्रैल का काहिरा और नील नदी यह नहीं
फागुनी पुर्णिमा की चाँदनी में
हमारे गाँव को चित्रोत्पला बुला रही है
आँखों के इशारे से
मैं तो डूबता रहता मछली-सा
द्वापर, त्रेता और कलि कितने युग वह जाते हैं
कई जन्म, कई मरण ख़त्म हो जाते हैं
मेरे अंदर कौन-सी नदी उमड़ती है
दूर से लगती है आत्मा
मरुभूमि का पिरामिड
सरल शब्दों की लोरी
नदी किनारे
गाँव के छोर पर नारियल और आम के पेड़
स्वप्न, दृश्य
हँसी, रुलाई मिली
न जाने कितनी लहरें
चार :
कभी-कभी आँखें खोल देखते ही
प्रशांत शून्य आकाश चूमता है
और कभी अचानक खुभो देता है आग
मेरे ऊपर उदार तपस्वी-सा
मुँह दिखाता है आकाश का
बादल दिखाता है
भादों के धान-खेत की गाभिन लहर,
पैर तले लौटते रहते हैं
युद्धक्षेत्र, कबंध और आर्तनाद,
वक़्त लगता है
अवरुद्ध, अभिशप्त पृथ्वी को पहचानने में
इतना दुःख, इतना धैर्य, पाप-पुण्य चाहिए
पाने को अंत में विनाशकारी भाग्य
देह मेरी उड़ जाती है हवा में
सूखा पत्ता हूँ मैं
भर दुपहरी झेलता हूँ
उदास हवा के साथ
और रास्ते में मिलता हूँ
उसी खोई-खोई-सी चिरैया से
अब वह लौट रही थी
न जाने क्यों रोती हुई मन मारकर
शोक इतना उग्रतपा है
यह कहा भी नहीं जाता
दिन बीत जाने पर
खरी-खोटी उसकी
सही भी नहीं जाती
पाँच :
कभी-कभी पूरा आकाश
थके-हारे शिशु-सा
आकर सो जाता है चौरे के पास
उसकी आँखों में बहने लगता है
मेरा सारा अतीत
माँ के सो जाने के बाद
बुझ जाने के बाद संझाबाती
वह तो महज़ एक चिट्ठी है
ग़लत पते की
कभी न पहुँचेगी
मेरे मन के उजाड़ गाँव में
सूर्योदय ही तो गढ़ता है
उस गाँव में
अद्भुत सप्तम स्वर्ग और
मुक्ति-मंडप
सूर्यास्त जो नाना करतब दिखाकर
सब कुछ संहारता है
उस गाँव के
मेरे जर्जर काया-घर में
बहता है निरंतर नवद्वार
अस्थिपंजर पर ढँके हैं
रोएँ और चर्म,
बँधी हैं रुधिर-शिराएँ
कौन-सा गुरु-वाक्य है वह
मैं क्या जानूँ अपात्र
फिर भी तो आँखें बंदकर
करता हूँ पालन उसके अनुशासन का
स्वप्न देखता हूँ पूरी रात
कर्म की जकड़ में
देखता हूँ दृश्य दिन-भर
उनींदे क्रोध में बस
जलती है आत्मा
ईर्ष्या-द्वेष के दावानल में
वह तो सिर्फ़ पालन है
गुरु-वाक्य का
उस जर्जर घर में
हूँ मैं दुराचारिणी।
छह :
आकाश शब्द का तनु
शब्द मँडराता है स्वप्न में, दृश्य में
शब्द गढ़ा जाता है या गढ़ जाता है
प्रेम में, मृत्यु में;
चराचर संसार जनमता है उसके आनंद से
दुर्जय दुःख से
उच्चारता है कौन
सुनता है कौन
हैं किसके ये शब्द?
अपात्र पात्र नहीं जानता
अनर्थ अर्थ नहीं गिनता
कपास से वस्त्र की तरह
इंद्रियों के सप्त छंदों में
शब्दों से बुनता है पृथ्वी
कौन है वह
अद्भुत सामर्थ्य वाला बुनकर?
शब्द के दो नयनों में उगता है रवि
उसके मुख में अनल का प्रकाश
शब्द के ललाट पर जलती है अनबुझ
क्रोधशिखा मेरे मन की
सिर पर अभिषिक्त समग्र आकाश
मेघपुंज केश-राशि
कंठ में सारी कविताएँ
नदी बहती है
शिरा-उपशिरा से होकर
मृत्यु-सी, स्नेह-सी, स्वप्न-सी, दृश्य-सी
खींचती है उसकी शुभ्र ममता
शब्द पैदा करता है
मेरे अंदर आनंद की अबुझ सिसकियाँ
शब्द जला डालता है
मेरे सीने के शोक और संताप
तमाम अनजान आँसुओं को
शब्द गढ़ता है
मेरे हृदय के टूटे मंदिर में
हाथ-पैर हीन और अधगढ़ा वही प्रेमदेवता
शब्द तोड़ डालता है
सारे देहाभिमान, लीलाएँ, बाल-केलि, स्वप्न-दृश्य
शब्द वामन जो है
एक डग में ही आ जाते उसके
भूमि गगन
दूसरे डग में
समूचा शून्य
और जगह है ही कहाँ
उस मायावी के तीसरे डग के लिए?
मैं तो सिर झुका देता हूँ चुपचाप
उस ब्राह्मण के पाँव में
सात :
कौन-सी आस लिए
दिन-दिन भर, रात-रात भर
बस राह देखता रहता हूँ सबकी
कीचड़ और फूलों की आँखों से
जन्म-जन्मांतर मेरा दीखता है साफ़
मैं तो जन्म लेता हूँ क्षण प्रतिक्षण
होता हूँ हर्ष-शोक-विमोहित समस्त भुवन में
मैं दाई हूँ चींटी के जापाघर में
मैं मन मसोसे बैठता हूँ
गैदे की रोग-शय्या किनारे
मैं शववाहक हूँ
उस चिड़िया की अंतिम यात्रा में
रक्ताक्त होता हूँ मैं
जब कोई तोड़ता है
उस पेड़ के डाल-पत्ते मेरे मित्र—
मैं रोता हूँ अधमरी दूब की उसाँसे में
मेरे चेहरे पर हँसी फूटती है
आकाश को बादल
और चातक को बारिश मिलने पर
मैं तो चिरकाल
जड़ा रहता हूँ, डूबा रहता हूँ
नया रूप धरता हूँ
रंगीन तितली के अमाप लोभ से
नन्हीं मकड़ी की अतृप्त प्यास से
खिलते फूल के उन्माद में
पहाड़ के उस पार डूबते चाँद के शोक में
भोर में हवा की अंतिम हताशा में
संन्सायी के प्रणव ओंकार में
मैं नया जन्म लेता हूँ
मैं तो नित्य करता हूँ मृत्यु-वरण
रूपजीवी गणिका के पश्चात्ताप और क्लांति में
घिसट घिसटकर चलते
केंचुए की लक्ष्यहीनता में
चटक चाँदनी से धुले कोढ़ी के
मादलनुमा देह के रिसते घाव में
अक्षर-अक्षर में मेरा पुनर्जन्म
मृत्यु मेरी प्रत्येक शब्द के कोण में
ध्वनित मेरा जीवन
क्षण-क्षण, उच्चारण में
स्वप्न और दृश्यों के सम्मोहित
सातवें आँगन में
इतने सपनों के लिए
भला रातें कहाँ
दिन कहाँ
इतने दृश्यों के लिए!!
- पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 31)
- रचनाकार : सीताकांत महापात्र
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1994
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