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कविता का जन्म - 1

kawita ka janm 1

सीताकांत महापात्र

सीताकांत महापात्र

कविता का जन्म - 1

सीताकांत महापात्र

और अधिकसीताकांत महापात्र

    उसके उदय के लिए प्रतीक्षा और

    प्रार्थना के लाख साधन

    पंचभूत, पंचमन, पच्चीम प्रकृति से घिरा चेतन-अवचेतन

    समग्र सत्ता के आकाश में

    कितनी दीर्घ प्रस्तुति इस पर्व की

    शांत-शुभ्र आयोजन!

    सीने की बात रात में दर्द और बढ़ता है

    बड़वानल भड़कता है, आशा धधकती है

    टूटकर चूर-चूर होते हैं सपने

    शब्द के सीने में स्वप्न टलमलाता है

    नया संकेत सुनाई पड़ता है प्रलय का

    स्नायु और रक्त के स्रोत में

    लंबी रात है अँधेरे दुःख की

    बेशुमार यादों और दर्द की

    आशा-निराशा, स्वप्न, क्षोभ और खीझ की

    अँधेरा जम जाता है गहरा—और गहरा

    जगमगाते असंख्य शब्दों के तारे स्मृतियों-से

    किटकिट काले दुःख से सीने में समुद्र गरजता है,

    आँसू, उसाँसें, स्वप्न—सब मिलकर

    हो जाते हैं एकाकार

    छोटे-छोटे शब्दों के बादलों में

    सहसा उभर उठता है लाल रंग

    नन्हें-नन्हें शब्दों के डैनों पर

    पसर जाता है नृत्य का त्रिभंग

    हाड़ की बाँसुरी से सुबह के शब्दों की हवा

    गुनगुनाते हुए किस अद्भुत स्वर में

    करती है सुबह के मंत्रों का आवाहन

    रात चुपचाप देखती है

    असंख्य यंत्रणाओं के तारे

    घटाटोप अँधेरे में बुझ जाते हैं

    दीये-से जलते हुए

    दिगंत में रोशनी के इशारे

    उसके बाद भरता है शब्दों में रंग

    शब्द-शब्द में अक्षर-अक्षर में

    भर जाती है भोर की किनकिनी बयार,

    शब्दों में बहते हैं बादल,

    शब्दों से झरते हैं

    असंख्य चिड़ियों के गीत

    शब्दों से आकाश पिघलता है

    नए प्रकाश में

    शब्द—चिड़ियों के डैनों के स्पंदन से

    समग्र आकाश-पृथ्वी आदिगंत होता है प्रकम्पित

    कलियों-से गुँथ जाते शब्द एक-एक कर

    जाने किस माया से!

    एक शब्द उड़कर आता है

    लंबी पूँछवाला काजलपाखी बनकर

    मेरे हाड़ की डाल पर बैठता है

    डबडबायी निरीह आँखों से ताकता है शून्यता को

    शून्यता से मुँह रगड़ता है

    उसका अनुराग-रंजित स्वर

    सुन पड़ता है अस्फुट माया में

    उसके पीछे-पीछे अनेक शब्द

    कौआ और कोयल बन वीरान हृदय-आकाश में

    धुँध में डैने झाड़

    उड़ते हुए आते हैं

    और रम जाते हैं समवेत स्वर-लय में

    हाड़-माँस-रक्त के प्रासाद से

    सहसा उठते हैं वंदना के स्वर

    स्तोत्र सुनाई देता है, आनंद लहरी फैल जाती है

    ‘‘वे मन मारे बैठी

    कल्पना की गोपियाँ!

    अब उठो, आकर देखो—

    कितना सुंदर कान्हा उगा है पूर्वाशा में

    अग्निनील वेदना के सम्भार में।’’

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 28)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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