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कवि मीडास

kawi miDas

विजय देव नारायण साही

और अधिकविजय देव नारायण साही

    कहते हैं गिरता है मानस में लगातार

    सरपत के फूलों-सा नरम-गरम निर्झर

    अंतर में तैरता समुंदर है आबदार

    जिसमें है खाड़ी, जलडमरुमध्य, सागर

    अक़्ल में हिमाचल की बर्फ़दार चोटी है

    जिस पर लहराती है सिल्क की पताका

    आत्मा में सात संग़मर्मर के आँगन हैं

    जिनमें है धुले हुए मलमल-सी राका

    मर्म कोठरी के पार बंद हैं तिलिस्म एक

    बीच में सरोवर है चारों ओर सीढ़ियाँ

    आधी रात खिलता है अंजलि-सा कुईं फूल

    बाहर टकराती हैं जाँनिसार पीढ़ियाँ

    एक मुँह-माँगा चाँद व्याप्त है दिशाओं में

    फेंकता है रश्मि चंद्रकांत को टटोलता

    बार-बार देखता जलाशय को सीझ-सीझ

    सिर्फ़ एक इंद्रजालवासी यहाँ डोलता

    गदराई नदियाँ हैं, काँपते बवंडर हैं

    मेहताबी कुहरा है, पिसा हुआ सोना है

    आँखें मूँदने पर काम करता है इंद्रजाल

    शब्दों में जादू है, हाथों में टोना है

    जिसको छू देते हैं सोना बन जाता है

    सब कुछ अनहोना यहाँ होना बन जाता है।

    चेहरे से लगता नहीं।

    बाहर सुलगता नहीं।

    फिर भी तुम गा-गा कर खँजड़ी बजाते रहो

    सच्चे साँइयाँ!

    झूठ सच वाली इस मिली जुली दुनिया में

    कौन नहीं

    अपनों में संत और गैरों में काइयाँ?

    कविवर मीडास, तुम सब छू कर स्वर्ण करो

    सोने का पानी और सोने की प्याली है

    प्यासे मर जाने की शिकायत है ओछापन

    कंचन का दोष क्या, कसौटी ही काली है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : मछलीघर (पृष्ठ 40)
    • रचनाकार : विजय देव नारायण साही
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1995

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