काश्मीर स्वप्न का नहीं, मिट्टी का है
kashmir svapn ka nahin, mitti ka hai.
कुंजबिहारी दास
Kunjbihari Das
काश्मीर स्वप्न का नहीं, मिट्टी का है
kashmir svapn ka nahin, mitti ka hai.
Kunjbihari Das
कुंजबिहारी दास
और अधिककुंजबिहारी दास
केशों में हैं उसके पाइन वन की लहरें
मुँह में वुलर झील का सद्य पद्म
उषा-किरण-मिश्रित तुषार-जैसा है उसका रंग
ललाट में सुनहरी नासपाती।
गड पर है आपल की रक्तिम आभा
अधर पर द्राक्षा की मधुर सुकुमारता
श्वास में है उपत्यका के उद्यान की सुरभि,
आँखों में झेलम प्रपात की चंचलता
नख मे चेरी फूल
कंठ में बुलबुल
तुषार-प्रवाह-जैसी है उसकी मंथर गति
चिनार वन की झोपड़ी में रहने वाली
इस किशोरी की देह ने मानो पाई हो
काश्मीर की आश्चर्यमयी शोभा।
शत-शत लोभी आँखें चाहती हैं उसका लावण्य
वह माँगती है सिर्फ़ मुट्ठी भर अन्न
कोई देखता है उसकी आँखों मे मदन-बाण
वह माँगती है उमड़ती जवानी छिपाने के लिए
केवल एक वस्त्र।
कोई कहता है प्रकृति की कारीगरी का यह चरम उत्कर्ष है
किंतु उसके मुख पर उठ रही है करुणा की तरंगें
संग्राम-क्षत अथर से रक्ताक्त
आँखों के नीचे पहाड़ी झरने को लोहित करता है
एक यही नैराश्यमय सूर्यास्त।
उस पर है अंधे और बीमार पिता का दायित्व
चैत्र वन की यह सुंदरतम मंजरी
जल रही है जीवन की व्यथा में
गालों की गुलाबी को सर्वहारा के हा-हतोस्मि
किया है पकिल
घने कुहरे के बीच शिरशिर उषा कि भाँति छायामयी
वह जैसे कहती है
काश्मीर
स्वप्न का नहीं,
मिट्टी का है।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : कुंजबिहारी दास
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी
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