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कल्पित सिद्धांतों का भ्रम

kalpit siddhanton ka bhram

रामजी तिवारी

रामजी तिवारी

कल्पित सिद्धांतों का भ्रम

रामजी तिवारी

और अधिकरामजी तिवारी

    उँगलियों को थामें शनि गुरू लगायत मंगल,

    सुनहले पालने में लॉकेट बन झूलते त्रिपुरारी

    रोज़ लड़ते हैं उसके लिए दंगल।

    रक्षासूत्र बन कलाइयों पर लिपटे सत्यनारायण भगवान,

    मोबाइल में वाल पेपर बन चीरते हैं सीना पवनसुत हनुमान,

    और बजते हैं फ़ोन आने की धुन में

    ओम् साईं, ओम् साईं, ओम् साईं राम।

    सुबह का बिलानाग़ा एक घंटा धरती के गर्भ से

    पूजाघर में क़ैद देवताओं के लिए,

    वो दौड़ता है नंगे पाँव प्रतिवर्ष दरबार में

    वैष्णवी जैसी माताओं के लिए।

    प्रत्येक सावन में अखंड हरिनाम जाप,

    पूर्णाहुति पर होती है कथा

    सब माया है, कैसा शोक? कैसा संताप...?

    ये तो चंद उदाहरण भर हैं

    उसकी अगाध आस्था को देखने-सुनने के

    पकड़ पाया मैं मतिमंद जिसे आधे-आधे में,

    हरि से जुड़े रहने की यह कथा

    लगती अनंत है हरि जितनी ही

    अभिवादन का जवाब भी जब वह देता है ‘राधे-राधे’ में।

    तो कौन मानेगा कि जात रखकर

    समाज की छाती पर प्रतिपल यह मूँग भी दलता होगा,

    करता होगा तांडव नृत्य उसके कपाल पर

    धन सत्ता और ऐश्वर्य के शिखर को चूमने के लिए

    नैतिकताओं को चुटकियों से मसलता होगा।

    अरे ठहरो...! भ्रम में वह नहीं हम हैं,

    कि होते हैं घटित कल्पित सिद्धांत भी

    कार्यकारण और कर्मफल जैसे

    जबकि जानता है जगत

    बात बिल्कुल बेदम है।

    तभी तो

    इतने सारे ईश्वर भी मिलकर नहीं बना सकते

    उसे एक अदना-सा इंसान,

    और ही तमाम धर्मग्रंथों में

    बिंदुओं की औक़ात रखने वाले

    आततायियों जितना ही निर्धारित कर सकते हैं

    उसके लिए कोई भी दंड विधान।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रामजी तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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