एक
कौन-सा स्टेशन था वो जहाँ कल रात देर तक ट्रेन रुकी रही
जहाँ टिटहरी की क्रांत आवाज़ सपनों को नींद से
और नींद को आँखों से खदेड़ रही थी
अपने दाएँ और बाएँ सामान सँजोए
छोड़ आए घर की किसी आधी-सी दीवार को खड़ाकर
चार हाथ से कम जगह में सिमट रहे
कौन थे वे
जो सिरहाने की जगह चप्पलों को सँजोए
रोकना चाह रहे थे अपने दौड़ जाने को
धोतियों से बाहर झाँकती रोएँदार जाँघें
कामुकता के हर विज्ञापन को ख़ारिज कर रही थीं
पर ऊपर दीवार पर टँगी तस्वीर में
वी.आई.पी. का लाल सूटकेस दो उँगलियों के पोरों से ठेलती
अपनी लंबी मांसल टाँगों से डग भरती
तंग कपड़ों में एक चुस्त लड़की
हवा के रेले पर, सबकी पहुँच से दूर
उड़ती ही चली जा रही है...
ये हाथों का पुल किस किनारे को जोड़ने उठ रहा है
जबकि खिड़कियों से परे धुँधले चेहरे
आँखें नीची किए हाथों को शालों में दुबकाए खड़े हैं
क्या उनके सब खेल चुक गए हैं
या कोई अब भी है
हर अलविदा के परे
जिसके लिए हाथ फिर खुलेंगे और आँखें ऊपर को देखेंगी?
दो
आज 9 दिसंबर 2016 की सुबह चार बजे,
मेरी रसोई की खिड़की के ठीक पीछे
आम के पेड़ के पास का लैंपपोस्ट, एकाएक
पूरनमासी के चाँद में तब्दील हो गया
कुछ दूरी पर इंद्र का एरावत
सूँड ऊपर किए कराहने लगा
किसी ने उसके पाँव को कील से धरती में ठोंक दिया
उसका दूसरा पाँव हवा में उठा
अभी तक नीचे नहीं आया
उसकी बग़ल में जो ज़िराफ़ है
उसका चेहरा पत्तियों से ढँका है
धुँध से घिरा वो वाष्प में बदल रहा है
अब सिर्फ़ उसके कान रह गए हैं
समुद्री सीलें, पोलर भालू, पेंगुइन
पानी में बहते हुए मेरी बालकनी में एकत्र हो रहे हैं
बाप-बाप कहते वे मेरा दरवाज़ा पीट रहे हैं
कोई है जो अंटार्कटिका से बेहिसाब बर्फ़ चुरा रहा है
मुझे डर है मैं उनके ग़ुस्से का सामना नहीं कर पाऊँगी
उनके प्रश्नों के जवाब मेरे पास नहीं ही होंगे
मैं उनसे आँखें नहीं मिला पाऊँगी
और यह तो क़तई नहीं समझा पाऊँगी कि
कैसे मेरा घर सलामत है जबकि उनके रहने की हर जगह जा चुकी है।
- रचनाकार : विजया सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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