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कबूतर भी

kabutar bhi

प्रेमशंकर शुक्ल

और अधिकप्रेमशंकर शुक्ल

    बहुत दिनों बाद आज एक कविता लिखी

    तुम्हारे लिए

    रोया तुम्हारी खिलखिलाहट को याद कर

    इतना चुप रहा

    कि आँखों ने भी नहीं की कहीं कोई बात

    (चुप रहना तुम्हारी चुप्पी में शामिल रहना है

    लेकिन बोलना

    तुम्हारे बोलने को खोलना है)

    बोल-बोल कर

    तुम्हारे शब्दों को लौटाता रहा अपने होंठ पर

    जगाता रहा उनकी आग

    बहुत दिनों का जमा अँधेरा उलीचता रहा

    ताकता रहा नीला आसमान

    जिसकी तरफ़ दुपहरों में हमने

    उड़ाए थे अपने लिखे हुए पन्ने

    अपने हर अंत पर

    एक इंदीवर रख करता रहा हर अंत का अभिषेक

    उम्र की पगडंडियों में गिनता रहा तुम्हारे पाँव की छाप

    तफ़्तीश करता रहा भीतर की

    बरामद करता रहा अपने से ही छुपाई

    अपनी सोनहर साँस

    लिख तो रहा हूँ तुम्हें

    चिट्ठी में तरतीब से

    लेकिन पहुँचेगा तुम तक कैसे यह

    कबूतर भी

    अपने प्रेम में

    टूटा पड़ा है

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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