जुलाई 1956
julai 1956
एक
यहाँ और अभी...
इस सघन अँधेरे में मेरी हर तरफ़ प्रलय जुट रहा है
तुम्हारी सुगंध का। भविष्य सहित खिलेगा आने वाला कल।
पर आज तुम मुझमें हो, सहन करती हुई
मेरे पहले सौंदर्य और मेरी आत्मनिष्ठुरता को।
मृत्यु से भी निश्चित हैं आज मेरे होंठ तुम जिसका चुंबन
फूलों के पक कर
झरने में उगेगा तुम्हारा ही अवकाश रहस्य।
...कितने कितने रूप सरकते हैं तुम्हारी आँखों में
अस्तप्राय दर्पण में, जहाँ सूर्य डूबता है...
प्रत्येक तुम्हारी हलचल में वह लय है मृत्युमयी
बहती जाने वाली, आच्छादित कुसुमित संध्या के सरोवर में
दो
डूबती जाओ; डूबती जाओ; डूबती जाओ;। इस घनान्धवेला में। अपने रक्त में
भ्रमरों के आषाढ़ के पसरते जाने में। वेदना के मोह में फँसी
तुम्हारी आकाश व्यापी क्षुद्रता मुझे चाहिए; डूबती जाओ।
मुझमें ही यह हद पार हो! इन मेघपर्णों के अनुपम वस्त्रों से झर-झर झरती
जिस क्षण में तुम बिखरोगी क्षणिक मृत्यु के बेकाबू अँधेरे में,
सिर्फ़ तुम्हारी झरी पंखुड़ी रह जायेगी मेरे बाहुओं में।
राख हो या पिघल जाओ मेरी सूर्यार्द्र रात्रि में।
फलित ऋतु की अंतिम शय्या पर। ‘आओ’ कहता हूँ,
‘सिर्फ़ एक बार और पूरी तरह’।
तीन
और मैं देखता हूँ पशु या ईश्वर की तरह
जिसकी आँखों की सत्ता है अभी यहाँ और इस वक़्त :
तुम्हारी आँखों के डोरे अनंत में गुँथे हुए संवेदना के नक्षत्रों के साथ।
अपना निर्वाण अपनी शांति मैंने बेच दिया है, क्षण-क्षण में निरर्थक होने वाली
तुम्हारी इस एक मुस्कान के लिए; डूबती जाओ और हथेलियों की
नाज़ुक रेखाओं में गूँथ डालो मेरा तुम्हारा जीवन।
अतर्क्य अपने संबंध पर लगाने दो आँखों की मुहर
अंधेपन की। शव-पस्त होने के पहले क्षण का...
चार
तुम्हारी आँखों के
उस पार क्या है?... लहरें?... या जमी हुई चाँदनी, हिमशुभ्र?
संगीत नि:स्वरता का? मरणेंद्रियों का आवाहन करने वाला क्रूर दैवी अर्थ?
मैं समझ नहीं पाता, जान नहीं पाता, मुझे समझ आयेगा ही नहीं
पर तभी तो तुम मेरी हो, मुझसे ही, मेरे बिना।
काल का चित्रबंध, विचित्रबंध, चित्र-विचित्र-बंध। किसने फेंका
अभिमंत्रित सतरंगी पासे जीवन्मृत शरीर के चौसर पर?
पाँच
…यह प्रकाश देखा था तुमने? नहीं? तो फिर किसलिए
लेकर गयी थी अपने माँस का अँधेरा नैवेद्य? मेरे लिए
रात के कटोरे में अभी भी दिन की झाग है। दहकती दरार
बुझ चुकी है तब भी। सधे हाथों से लीपकर आँगन
पाप का, झरे जहाँ पारिजात ओस की आँखों से। हम बने
पृथ्वी के गाल पर ईश्वरीय चुंबन। टपका रक्त रति की आँखों से।
छः
जुलाई की आँखों में धूप उतरती है बीच-बीच में, धीरे से
झाँकती हैं आँखें बारिश की मिटी हुई अबोली तंद्रा से
मैंने पूछा है तुम्हें। तुम्हें आधार बनाया है, क्योंकि
तुम्हारे बिना मैं असम्बद्ध हूँ या सूर्यबद्ध।
…‘रिल्के’ की कविता...निश्चलता के बीज...
निराकार का मधुर रस...निष्फलता की फाँकें सुगढ़ प्याले पर...
पहला नाश्ता...! लड़की! तुम्हारा पागलपन मेरा दिल दहलाता है।
कान पर खटखटाती है तुम्हारी पुकार। मेरी शांति
आवाज़ों से भी ज़्यादा कर्कश हो जाती है। तूने ही दी है
मेरी मुट्ठी में अपनी माटी, अंतिम मिट्टी देने के बाद
जहाँ तुलसी की देखती मंजरियों से ढँक जायेगा
मेरे जीवन की वैष्णवगान...चिता की राख।
मेरी मुट्ठी में अपनी माटी, अंतिम मिट्टी देने के बाद
जहाँ तुलसी की देखती मंजरियों से ढँक जायेगा
मेरे जीवन का वैष्णवगान...चिता की राख।
सात
जुलाई उन्नीस सौ छप्पन! अर्थहीन शब्द। काल विभ्रम के
अनंत संदर्भ में
पर मुझे याद रहेगा मेकी साँसों के वह जाने पर भी प्रलय में :
तुम ही मेरी पहली बलि थीं, पहला साक्षात्कार।
मेरी निर्जनता के पहले कौर का तुमने ही लिया था पहला स्वाद।
पंछियों सी देह में निष्ठुरता भरने वाली अग्नि कोमल उँगलियाँ
सतत थरथराती उगीं अभौतिक गीतों में। डूबती जाओ;
पिघलती जाओ; मेरे लिए; मुझमें; इसी तरह सुनो ना!
…यहाँ ठहरते हैं शब्द; पलकों के तट पर, बारिश के काजल
आँजकर लदे हुए सम्मोहित।
आठ
आख़िरी शाम की यह माँग, निस्तेज नारायण!
हमारे शव को रात्रि का आशीर्वाद दो, इसके बाद।
खिल उठने दो प्रत्येक प्रेरणा के मुरझाये दिगंतर। और तुम भी
डूबते जाओ; फिर नहीं उगने के लिए।
- पुस्तक : मैजिक मुहल्ला खंड दो (पृष्ठ 9)
- रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2019
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