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अभी मैं पहचानती हूँ तुम्हें

abhi main pahchanti hoon tumhein

गगन गिल

गगन गिल

अभी मैं पहचानती हूँ तुम्हें

गगन गिल

और अधिकगगन गिल

    अभी मैं पहचानती हूँ तुम्हें

    रंगों में

    किरणों में

    देख लेती हूँ

    हवा की सरसरहाट में

    छिपे बैठे हो किस ओर

    लगाए रहती हूँ

    सन्नाटे में कान

    ठिठुरता है दिल जब

    लंबी लगती है रात

    मालूम रहता है तब भी

    यहीं कहीं होगे तुम

    सुधार रहे होगे

    दुनिया की घड़ी

    एक दिन जब पहुँचूँगी

    सभा में तुम्हारी

    बिना नेत्रों, इंद्रियों के

    कैसे पहचानूँगी तुम्हें तब

    किससे कहूँगी

    कैसी पीड़ा में मिटी

    इस जन्म

    धीरे-धीरे

    मेरे माथे की लिखत

    अभी मैं पहचानती हूँ तुम्हें

    इस कण भर समय में

    उस काल-रात्रि के बीहड़ में

    कहाँ ढूँढूँगी तुम्हें?

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैं जब तक आई बाहर (पृष्ठ 89)
    • रचनाकार : गगन गिल
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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