मेरा पड़ोस
मेरा ही है
यह कहना
अब थोड़ा मुश्किल लगता है
मैं पड़ोस को उस तरह जान नहीं पाता
जिस तरह जानता हूँ मैं
अपने अहाते में खड़े नीम के पेड़ को
वह भी मुझे जानता है
दशकों से
मेरे कमरे में करता है प्रवेश
हर पहर की बयार के साथ
अपने अलग-अलग स्वाद लिए
अलग-अलग भंगिमाओं में
उसे भी ठीक-ठीक मालूम है
मेरे अनावृत्त जीवन के बारे में
जो मैं नहीं देख पाता
अपनी निगाह से
उसने देखा है वह सबका सब
हम दोनों एक-दूसरे को
इतना तो जानते ही हैं
कि कह सकें
यही मेरा पड़ोस है
किंतु, जो मेरा पड़ोस है
वह मेरे घर नहीं आता
उसे मेरी बाहरी दुनिया के बारे में भी
कुछ पता हो
इस पर शक है मुझे
पिछले दशकों तक
उसका अभिवादन मुझे मिलता रहा
कुछ यूँ हम एक-दूसरे को जानते रहे
उसके पिछले दशकों तक
वह मेरे गले मिलता रहा
कुछ यूँ हम एक-दूसरे को जीते रहे
उसके भी पिछले दशकों तक
वह मेरे घर आ जाता था
जैसे कि अपने ही घर आया हो
मेरी क़मीज़ अपने बदन पर उतार लेता
जैसे मेरे पिता उतने ही उसके हो
जितने कि मेरे हैं
वह भूल जाता था
कि उसके मुँह में कौर डालती उँगलियाँ
उसकी माँ की हैं
या फिर मेरी
अब वह मेरे घर नहीं आता
अपने ही घर में लेटा रहता है
अपने पड़ोस को कोसते हुए!
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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