पत्ता भी गिरे तो नींद टूटती है।
ठीक वहीं;
पता चलता है कि यह
जंगल का इलाका है।
जंगल तो जंगल है—
अनेक व्यतिक्रम के बावज़ूद
भालू की साँस और साँप का भय,
जीने की राह के सामने खड़ा होकर
जब रास्ते का पता न मिलता हो,
दौड़ने का दिल करता है।
पल पल-
घटना तो नहीं...
अघटना घट जाती है।
झड़ जाता है
खिलने से पहले ही फूल—
टूट जाती है डाली;
बारिश से भीगी
कच्ची देह में भी
लगती है आग...
सुनाई देती है
जान खो देने की करुण चीख!
पकड़ में न आने वाले समय की
आँखमिचौनी के बीच—
नाचती है जंगली हवा,
और पत्थर टूटकर
पहाड़ की ऊँचाई से...
आसमान छूते साल के दरख़्त को भी
धराशायी कर देता है!
बादल की रोशनी
या कोहरे के सागर में—
फिर कभी
जंगली फूल की महक से
उगता है जीवन,
तितली उड़ती है अत्यंत निकट...
पंछी के घोंसले से
चमकता है साँप का मुँह!
सारी आशा-दिलासा...
आशंका का सूर्योदय लौटता है तो,
सागर की ऊँची लहर—
चाहे न लाँघता हो तट;
कई पर्वतों के मथान छूती...
दुबली झरना कलकल करती
उनींद-सी गुनगुनाती,
वनभूमि को झंकृत कर बह जाती है—
जीवन का उन्मोचन करने की प्रत्याशा में।
- पुस्तक : समकालीन ओड़िआ कविता (पृष्ठ 33)
- संपादक : सत्य महापात्र
- रचनाकार : गुरु महांति
- प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
- संस्करण : 2013
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