जीवन भर ख़तरों से खेले, अब मरने का डर
jivan bhar khatron se khele, ab marne ka Dar
यश मालवीय
Yash Malviya
जीवन भर ख़तरों से खेले, अब मरने का डर
jivan bhar khatron se khele, ab marne ka Dar
Yash Malviya
यश मालवीय
और अधिकयश मालवीय
आरोही-अवरोही,
साँसों का है भारी स्वर
जीवन भर ख़तरों से खेले
अब मरने का डर
सूरज आसमान में
पश्चिम को जाता-सा दिखता
लाल रोशनाई से,
अपना विदा-गीत ख़ुद लिखता
अपना असर लगे हैं खोने
सारे छूमंतर
सूरजमुखी सिमटता-सा है
अपनी पंखुड़ियों में
बजने लगी शाम की बेला
चुप-चुप-सी घड़ियों में
पाँव थके, थकते हैं,
सपनों के पंछी के पर
जिससे अब तक खेले वो ही,
आग लगी डरवाने
छूट रहे साक़ी-मीना सब,
छूट रहे मैख़ाने
बैठे हम, गहरा ख़ालीपन
पैमाने में भर।
- रचनाकार : यश मालवीय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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