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जिन्नकथा-3

jinnaktha 3

अनुराधा महापात्र

अनुराधा महापात्र

जिन्नकथा-3

अनुराधा महापात्र

और अधिकअनुराधा महापात्र

    ग्राम-रहित, वर्षा-रहित चींटियों की छाया पहचान कर

    इस बार आया है घूमने

    जिन्न गाँव-टीले पर।

    रूपनारायण, रसूलपुर, दामोदर, तेरपक्का नदी घूमकर—

    देखी उसने, सड़े सेब की फाँकों-सी घटनाएँ शहर की,

    पहुँची गाँव में इंद्रजाल, ब्लू फ़िल्म,

    विप्लव के विज्ञापन नए-नए

    पागल एक, बिल्ली-सा, पाँवों में पड़ी हुई जिसके ज़ंजीरें,

    केवल देखता वही, दिन भर बैठ

    नीचे गुलमोहर के, सिहरन जिन्नकथा की

    भरी गुलमोहर में,

    खिलता है गुलमोहर आज भी गाँव में

    गए हैं भूल पर गाँव के लोग यह,

    आईने में सैलून के देखकर पीला

    मुँह निज का, जगती है वेदना

    पल भर को—

    तो क्या, तो क्या पृथ्वी पर है अब भी

    गुलमोहर!

    गई मशीनी नाव, अजंता हवाई चप्पल,

    परिवार कल्याण केंद्र, नदी गई और दूर—

    फैल गया मैदान, चरते मवेशी जहाँ!

    लोरियाँ-थपकियाँ बुआ और मौसी की अब नहीं,

    पिचके गाल बच्चों के, मुख पर लकीरें चिंताओं की,

    अंजन भी आँखों का, जैसे रासायनिक—

    जिन्न यह देख-सुन अवाक् है

    भागता नहीं कोई स्कूल छोड़

    मारते नहीं मास्टरजी खजूर की छड़ी से,

    सिन्नी, कटहल की आड़ में कहीं नहीं

    खेल अब छुपन-छुपाई का।

    पीरों की मज़ार पर जाना दौड़,

    माँगनी दुआ,

    सुनना हवा को जो बहती हो पेड़ों पर,

    वह सब अब कहीं नहीं।

    गंध नहीं कामिनी फूल की, मचान पर

    अपराजिता की, नींद नहीं आती किसी भी

    तरह, जिन्न को!

    जाग कर रातों को, घूम-घूम गाँव-रहित

    गाँवों में, जलती हैं जिन्न की आँखें।

    फिर भी वृक्ष लेते हैं नींद।

    बच्चे के हाथों में उलझी नहीं डोरी,

    उड़ती नहीं हवा में पतंग

    ताड़ पत्तों की वंशी दूर,

    मैदान पर, बजती नहीं—

    चारों ओर भरी सनसनाहट बस,

    खीर और शिशु उत्सवहीन जनपद, घर—

    पर दूर दूरांतर, पथ और पोखर, क़लमी फूल,

    नन्हीं चिड़िया दिखने के बाद,

    गाँव उसे ही तो बुलाता है—

    एक बार आकर जिन्न देख जाए—

    गाँव और शहर,

    जिन्न बनकर ही,

    कि वैसे जाते जैसे, शिखरों

    की अंतिम चढ़ाई पर लोग।

    जिन्न आकर अकेला है, और अधिक,

    प्रेम कर इकतरफ़ा, रात-दिन प्रेम कर,

    अपने में डूबा हुआ,

    करता प्रतिवाद बस मन ही मन

    आती जब गंध तैर कामिनी फूल की

    अनजानी क़ब्र से।

    ढहती दीवार क्यों, आकाश जाता है सूख क्यों,

    गर्भ ठहरने पर गंध क्लांत गाढ़ी यह

    उठती क्यों दवाओं की।

    क्यों काली बिल्ली की आँख से

    छिप जाती बच्चे के चेहरे की रौशनी।

    जिन्न बस रुद्धश्वास,

    देख नक्षत्रों को, चलता ही जाता है

    कोई जाता विदेश उसे ही मान स्वर्ग,

    जैसे पास ईश्वर के, दूर आकाशों में!

    जिन्न यही सोचता - होंगे जब सारे ये

    गाँव शेष, तब उनसे दूर का प्रवास वह,

    और मधुर होगा क्या?

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 94)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ अनुवादक समीरबरन नंदी और प्रयाग शुक्ल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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