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झुकना

jhukna

राजेंद्र शर्मा

और अधिकराजेंद्र शर्मा

     

    अभिनेता भाई राजेंद्र गुप्ता के लिए 

    जीवन में जितने
    सरल, सहज लोग मिले 
    उन सबकी रीढ़ की हड्डी 
    एकदम दुरुस्त थी 

    जो नहीं झुका जीवन भर 
    किसी के भी सामने 
    वह किसी दूसरे को 
    अपने सामने झुकाना नहीं करता पंसद 

    जो बात-बेबात
    हर समय तैयार रहते हैं 
    सामने वाले के सामने झुकने के लिए 
    दिन को रात, रात को दिन 
    सत्य को असत्य, असत्य को सत्य 
    कहने वालों ऐसे लोग 
    भीतर से रिक्त होते हैं 

    वे झुकते हैं जीवन भर 
    और इस क़दर झुकते हैं 
    सीधा खड़ा होना भी भूल जाते हैं 

    ऐसे बंदरों के हाथ 
    ख़ुदा-ना-ख़ास्ता लग जाएँ 
    अदरक की छँटाक
    तो अदरक की चाहना 
    रखने वालों को झुकाना 
    चाहते हैं इस तरह 
    जैसे वह रोज़ सुबह शाम झुकते हैं 

    अपने आपको विश्व बंधुत्व का बताते हैं 
    सबसे बड़ा पैरोकार 
    पर ऐसे लोग 
    होते नहीं किसी के 
    अपने आपके भी नहीं।

    वह अपनी हताशा 
    कुंठा के बीच 
    झुक-झुक कर पाए संसार के 
    बेताज़ बादशाह समझते हैं ख़ुद को 
    और चाहते हैं कि जैसे वह झुक-झुककर
    मरे हैं हर रोज़ 
    दुनिया भी उनके सामने झुक-झुककर
    मरे हर रोज़।

    दरअसल झुकते-झुकते 
    वह ख़ुद को मनुष्‍य बनाने की तमाम 
    संभावनाएँ ख़त्म कर चुके हैं,
    सामने वाले को झुकाकर ही 
    बड़ा आदमी बनने का अपना शग़ल 
    पूरा करना चाहते हैं।

    डरना इनकी नियति है 
    और दूसरों को डराना 
    इनकी फ़ितरत।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजेंद्र शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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