किसी गाँव-क़स्बे के दिखते
उस आदमी ने एक बार बीच में शायद
‘झोलाछाप वालों पर छापे’ कहा
फिर एक लंबी चुप्पी के बाद
फ़ोन कॉल काट दिया।
बस में तापमान इतना था
कि भट्टी जलती हुई लग रही थी।
पर संवाद का एक हिस्सा सुन लेने के बाद
उस पिता के चेहरे पर, और अब
मेरे चेहरे पर भी
(जिसे मैंने खिड़की के काँच में
उस समय के अभी में देखा था)
किसी पहाड़ी चढ़ाई से लौटने का श्रम पिघलता दिख रहा था।
जो बह रहा था, वह उस ठंडी न होती रात का
फ़क़त पसीना नहीं था। कुछ और था
शायद वक़्त या शायद आदमी का झोला या शायद झोले का जुगाड़
एक झोलाछाप आदमी
किस तरह ज़िंदगी गुज़ारता है?
कम पढ़ा, कम सोचता और कम बुरी हैंड राइटिंग वाला
क़िस्मत का मारा कोई आदमी
अपनी लंबी उम्र पर्चियाँ लिखने में काट देता है
एक नाज़ुक तार पर संतुलन बनाए
एक अपमानजनक सम्मान पर
जो कब सम्मान और अपमान की अदल-बदलकर लेगा
वह नहीं जानता—वह इसे जानने से भी डरता है।
कमाई के ज़रिए के लिए एक झोले की आड़ में
बहुत कुछ छिपा लेता है कुटुंब-परिवार से।
कुछ न कुछ दिखा लेता है बाहर समाज को
जिसे वह इज़्ज़त आबरू का नाम देता है
जो उसकी जेब को कभी पूरा नहीं भर पाती
क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ता है
कि वह गली-गली सूनी दुपहरों में भटकता
आवाज़ लगाता कोई फेरी वाला है
या नुक्कड़दरी में किराए के अँधेरे से भरे
गुमनाम दवाख़ाने का कथित डॉक्टर
दोनों ही के घर के बच्चों में भूख है।
इसी से झोलाछाप आदमी क्रांति की बात नहीं करता
वह समय नहीं गँवा पाता बदलाव की बातों में
उसके सीले हुए अँगोछे में पसीने की गंध कम
एक छिपे हुए जीवन के अदृश्य आँसू ज़्यादा थे
बोझ के उतरने जैसा एक स्वीकार था—
कि ग़लत काम तो आख़िर ग़लत होता है।
उसके नेपथ्य से बाहर निकलकर मैं
कैसे कहती थी यह
कि इस में कुछ ग़लत नहीं था।
जब बच्चों को भूख लगती है
तो कुछ बापों को फेरियाँ लगाना
तो कुछ को सस्ती दवाइयाँ बेचना होता है
इन बापों को बच्चों के बचपन में
अपने झोले से ही अवकाश नहीं मिलता
इनके बच्चों का
रोटी, बिस्तर, तारे, बादल और धूप सधा आकाश
सब इनके झोले में रहता है
क्रांति की बात सोच ही कहाँ पाता है
झोलाछाप आदमी...
- रचनाकार : प्रिया वर्मा
- प्रकाशन : समकालीन जनमत
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