झील
jheel
एक
पानी पर एक रास्ता बनाती हुई
गुज़र गई बोट
एक फ़व्वारा-सा उसका पीछा रहा करता
एक आवाज़ जो उस रास्ते पर
चलकर पहाड़ियों के पीछे
हुई अदृश्य
सिग्नल पर रुकी भीड़-सा
पानी कुछ देर रहा ठहरा
फिर झील में गया मिल
पानी के निचाट सूनेपन में
वह एक बोट
याद की तरह छूट जाती है
दो
पहाड़ी
क़ालीन की तरह बिछी है झील पर
डबल रोटी के टुकडे़ उछाले जाते हैं
क़ालीन के नीचे तहख़ानों से
सिर उठाती हैं मछलियाँ
तैरती डबलरोटी टुकड़ों में बिखर जाती है
झील के होंठ मुस्कुराहट की तरह फैलते हैं
तीन
झील पर तैरती एक दोपहर
मछलियाँ
अपने सिरों पर
रोशनी के जवारे उगाए
नाचती हुई
चल रहीं
सूर्य के विसर्जन का
यह चल समारोह
चार
पानी को सीलती रहती हैं मछलियाँ
इसलिए पानी कभी उधड़ता या
फटता नहीं
और मछलियों को पता नहीं चलता
कि वे कब धागे बन गई हैं।
- रचनाकार : हेमंत देवलेकर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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