पल्लू बाँधकर भोर जागती है... तभी से झप-झप विचरती रहती हो
...कुर-कुर करने वाले पालने से दो अँखियाँ खिलने लगती हैं,
और फिर नन्हीं-नन्हीं मोदक मुट्ठी से तुम्हारे स्तनों पर
आता है गलफुल्लापन। सादा-सा पहनकर विचरती रहती हो, तुम्हारे पोतने से
बूढ़ा चूल्हा फिर एक बार लाल हो जाता है। और उसके बाद
उगता सूर्य रस्सी पर लटकाए तीन गंडतरों को सुखाने लगता है।
इसीलिए तुम उसे चाहती हो! बीच-बीच में तुम्हारे पैरों में
मेरे सपने बिल्ली की भाँति चुलबुलाते रहते हैं, उनकी गर्दनें
चुटकी में पकड़कर तुम उन्हें दूर करती हो। फिर भी
चिड़िया-कौओं के नाम से खिलाए खाने में से बचा-खुचा एकाध निवाला उन्हें भी मिलता है।
तुम घर भर में चक्कर काटती रहती हो, छोटी बड़ी चीज़ों में
तुम्हारी परछाइयाँ रेंगती रहती हैं... स्वागत के लिए 'सुहासिनी' होती हो
परोसते समय 'यक्षिणी', खिलाते समय 'पक्षिणी',
संचय करते समय 'संहिता' और भविष्य के लिए 'स्वप्नसती'।
...गृहस्थी की दस फूटी खोली में दिन की चौबीस मात्राएँ
ठीक-ठाक बिठाने वाली तुम्हारी कीमिया मुझे अभी भी समझ में नहीं आई।
- पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 45)
- रचनाकार : विंदा करंदीकर
- प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
- संस्करण : 2001
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