भंते,
स्मृतियाँ
अकेला छोड़ मुझे
छलकती गगरियाँ कमर पर उठा
पगडंडी-पगडंडी हो लेती हैं
स्मृतियों के मुँह मोड़ते ही
अजनबी झुर्रियाँ,
झुंड बना
दोस्ती के लिए आगे
चली आती हैं
अठखेलियाँ करने को आतुर
हो उठी हैं
बालों की ये सफ़ेद लटें
उफ़्!
अब और नहीं
भंते और नहीं
मेरा दमकता
नख-शिख
घड़ी दर घड़ी दरकता चला जा रहा है
हर चमकती चीज़ क्या
इसी गति को जाती है एक दिन?
राष्ट्र को बनाने, बिगाड़ने वाला
मेरा सौंदर्य इतना कातर
क्योंकर हुआ,
भंते
ज़िद्दी दुख,
जिसका रास्ता सिर्फ़ नीले थोथे को मालूम हुआ करता था
अब वही दुख
मेरे मदमाते शरीर में
अपना रास्ता ढूँढ़ने लगा है
मुक्ति की
कोई राह है भंते
सीधी न सही
आड़ी टेढ़ी ही?
वैशाली की नगरवधू जनपद कल्याणी
बौद्ध भिक्षुणी के बाने
भीतर भी
आसक्ति के क़तरों को
अपने से अलग नहीं कर पा रही
इस अबूझ विवशता को क्या कोई नाम दिया है तुमने भंते
बिम्बिसार की मौन मरीचिका के आस-पास
एक वक़्त को मेरा प्रेम
टूटी चूड़ी सा काँच-काँच था
बुद्धम-शरणम् के बाद भी किंतु
अनुराग, प्रीति, मुग्धता के अनगित क़तरे रड़कते हैं तलुओं पर मेरे
सौंदर्य क्या इतनी मारक चीज़ है तथागत
मेरे प्रश्नों पर तुमने
एकाएक यूँ मौन साध
ध्यान की मुद्रा में ख़ुद को स्थिर कर लिया है
- रचनाकार : विपिन चौधरी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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