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जन्मभूमिश्च...

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विजया सिंह

विजया सिंह

जन्मभूमिश्च...

विजया सिंह

और अधिकविजया सिंह

    से कबूतर और से टमाटर

    से परे से जन्नत की ओर से मुँह फेरे

    दो अक्षरों का मोटा-सा मुथरा अक्षर

    मथुरा से थोड़ा आगे

    एक जंक्शन

    जहाँ ट्रेनें रुकती तो सब हैं

    पर उतरते थोड़े ही लोग हैं

    कल्पना और भावुकता

    की हर कोशिश के बावजूद

    कुछ और नहीं बन पाया

    जैसा था वैसा ही रहा

    जबकि हम दुनिया के सात चक्कर लगा के लौट आए हैं

    हर बार पटरी से उतरते हुए यही सोचा

    कि अब की बार

    कोई चमत्कार ज़रूर होगा

    आँखे खुली रह जाएँगी और मुँह की मुद्रा में

    आसमान के किसी किनारे

    किशोरपन का कोई साथी

    मोटरसाइकिल की फर्राटेदार आवाज़ से आने की घोषणा करेगा

    और हम जब आँख उठा कर उसे देखेंगे तो पाएँगे

    कि अभी भी देर नहीं हुई है

    अजमेर जाने वाली ट्रेन प्लेटफ़ार्म नंबर दो पर खड़ी है

    और उसे पकड़ा जा सकता है

    चंबल का पानी अब भी पन्ने-सा गहरा हरा है

    और ऊँची चट्टानों के बीच से होकर गुज़रता है

    जहाँ कभी पुल बनाते हुए सौ मज़दूर बह गए थे

    उनके घर वाले आज भी याद करके दिखाते हैं उँगली के इशारे से वो जगह

    जहाँ चंबल की गहराई और दिल के भीतर की ख़ाली जगह एक हो गए

    नहीं कह सकते

    कहाँ चंबल का हरा समाप्त होता है और दिल का लाल शुरू

    इन प्राथमिक रंगों की बैंगनी उपज

    वहाँ उन चट्टानों पर और दिल की परती ज़मीन पर अब भी अंकित है

    कोई है जो कविता से हर बार छूट जाता है

    जबकि नहरें मरुस्थल तक पहुँच गई हैं

    हम कभी नहीं जान पाएँगे वो कौन-सा धरातल है

    जहाँ पाँव पड़ते ही हमें पहचान लिया जाएगा

    और हमसे यह उम्मीद नहीं होगी

    कि हम अपने आपको ख़ाली कर दें

    और कोई गुलाब, चंपा या हरसिंगार हो जाएँ

    जबकि हमारी निष्ठा तो बुराँश के बेअदब लाल फूल की ओर है

    जो जंगल में आग की तरह फैलता है

    और शराब के कारख़ानों में दो पाटों के बीच पिसता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विजया सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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