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जंगल

jangal

स्वाति मेलकानी

और अधिकस्वाति मेलकानी

    पहाड़ से जंगल कटे

    और शहर में उगने लगे

    जंगल

    सिर्फ़ पेड़ों के नहीं होते

    ठीक उसी तरह

    जैसे जंगली नहीं होते

    सिर्फ़ जानवर

    शहर ढकने लगा है

    फैलते जंगल से

    सूरज की

    आधी-अधूरी रोशनी को

    झपटने के लिए

    हज़ारों बेलें

    पेड़ों को कसती हुई

    बेतरतीब बढ़ती जाती हैं

    जंगल फैल रहा है

    एक मज़बूत जाल की तरह

    जिसमें फँसी हुई मछलियाँ

    साँस भर हवा के लिए

    एक दूसरे के ऊपर

    चढ़ती-उतरती-लड़ती या मरती हैं

    ऊँघते शहर में

    धुँध से बैचेन

    करोड़ों तारों की

    चीख़ें सुनाई पड़ती हैं

    और एक बेजान ख़ामोशी से

    भरी हुई रात

    घिसटती-रेंगती ख़त्म हो जाती है

    फ़ैक्ट्रियों के सायरन के साथ

    अलस्सुबह

    जंगल में

    एक और ट्रेन आकर रुकी है

    अनगिनत मुसाफ़िर

    धरती-सी गठरियाँ लादे

    अपने पहुँचने लायक़

    जगहों को तलाशते हैं

    जंगल कहीं नहीं ठहरता

    कई-कई सड़कों पर

    बे-रोक टोक

    दौड़ता रहता है...

    और इस जंगल में

    रास्ता भटक जाना

    एक बेहद मामूली बात है

    जिसका ज़िक्र करना

    महज़ वक़्त की बर्बादी है।

    वही वक़्त

    जो हमेशा

    ज़रूरत से कम पड़ जाता है

    शहर के जंगल में

    स्रोत :
    • रचनाकार : स्वाति मेलकानी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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