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जड़वादी

jaDawadi

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

रवींद्रनाथ सिंह

और अधिकरवींद्रनाथ सिंह

    त्रास, प्रेम, कृतज्ञता

    अंतर की अनुभूतियों के बाद

    ‘देवत्व’ का आरोप कर

    मैंने सृजन किया ‘भगवान’

    इस मेरे अंतर के सिवा

    दूसरा कोई मायने नहीं उसका।

    जड़ ही मेरे सामने मुख्य

    बाक़ी सब गौण,

    जड़ था, जड़ है,

    चिरकाल रहेगा विद्यमान

    जड़ ही स्वयंभू!

    जड़ का नहीं कोई स्रष्टा

    जड़ ही अक्षय

    जड़ से उत्पत्ति सब

    जड़ है सर्वमय।

    जय जगत,

    यह विश्व ब्रह्मांड

    था, है नित्यकाल,

    फिर रहेगा भी।

    ईश्वर, देवता, ब्रह्मा

    किसी ने इसकी नहीं की सृष्टि।

    जीना ही धर्म मेरा

    काम्य फिर चिर शांति

    साम्य, यश, मान

    जीना होगा मुझे

    सृष्टि कर असाम्य का वीभत्स मशान।

    जड़ को चोट किए

    उसमें वर्तमान परमाणु

    उत्तेजित होते जैसे

    ठीक वैसे

    सामाजिक अविचार में

    शासकीय-स्वेच्छाचार में

    उत्तप्त मेरे रक्त का कण-कण

    धर्म मेरा जला देना

    मानव-सृष्ट नर्क यंत्रणा।

    मेरी विराट ध्वंस क्रिया में

    सृजन की दुरंत वेदना—

    थी, है सदा छुपी हुई

    मानव का प्रगति पथ

    तुम रुद्ध करते धर्मध्वजा धारी,

    सारे अनर्थ का मूल

    तुम्हारा यह धर्म का देवल

    तुम्हारे सारे काले कारोबार का।

    'धर्म' एक मरुभूमि

    'भगवान' जहाँ मरीचिका

    संघर्ष मेरी तलवार का

    बुभुक्षा मेरी आलोक की शिखा।

    तुम्हारे 'ईश्वर' से बढ़कर

    वह बुभुक्षा मेरी महीयान

    जगत विकासशील, गतिमान,

    अपने नियम में

    होता विश्व का विकास

    विपरीत संघर्ष के माध्यम से

    बिदा 'भगवान' के...

    यह संघर्ष छंदमय

    मेरे पास एक

    यथार्थ रूपसी कविता,

    जो मेरी धमनी की राह

    रक्त ही रक्त में

    निरंतर वह संघर्ष

    कहती अपनी कथा।

    सुनो हे धर्मगुरु!

    संघर्ष ही धर्म मेरा

    संघर्ष में से

    जगत को देखता मैं

    संघर्ष की ऊँची मीनार से

    वास्तव की गोद में।

    'धर्म' ने मुझे दिया नहीं

    देगा नहीं साम्य और न्याय

    सुख-शांति, अग्रगति,

    वही मेरी विजय।

    सब मुझे पाना होगा

    बाहुबल से

    रुद्ध वातायन कभी

    खुलता नहीं 'तपस्या' के फल से।

    मैं मानव पुण्यश्लोक

    कर्म मेरा नव-नव सत्य का सृजन।

    यह पृथ्वी मानव का पवित्र मंदिर

    'धर्म' के नाम पर जो कलुषित इसे करे

    स्वार्थ और मुनाफ़े से कालोनी बनाए,

    'धर्म' और 'ईश्वर' के नाम पर

    धरती पर तुम्हारी शैतानी

    उदग्र चैतन्य मेरा

    इन अनुभवी आँखों से देख-देख

    मेरी विज्ञानी मन-उपत्यका

    जल उठती समय-समय पर

    लेकर ध्वंस की बुभुक्षा।

    ध्वंस के प्राचुर्य से

    साम्य का नूतन सूर्य

    उगेगा लाल-लाल

    पीड़ित आत्मा का तेज

    वही अमलिन हास की मशाल।

    जीना चाहता मैं

    सब जला- मिटाकर

    छिन्न कर शोषण की बेड़ी।

    जीवन से मिटा पूँजी का जंजाल

    वस्तुवादी मानव मैं

    द्वंद्व मेरा प्रिय हथियार।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 121)
    • रचनाकार : रवींद्रनाथ सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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