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जबकि ऐसा ज़रूरी लग रहा था मुझे

jabki aisa zaruri lag raha tha mujhe

महेश आलोक

महेश आलोक

जबकि ऐसा ज़रूरी लग रहा था मुझे

महेश आलोक

और अधिकमहेश आलोक

    मैं उस समय ऐसा बहुत कुछ कर रहा था

    जिसे करना उतना ज़रूरी नहीं था

    जितना ज़रूरी लग रहा था

    मैं अपनी आँखों में चंद्रमा के लिए घर बना रहा था

    और चाँदनी मेरे दरवाज़े की दरारों से फिसलकर

    बिस्तर की सिलवटों में मोहब्बत के बिंबों पर

    नृत्य कर रही थी

    मैं अपनी पीठ से धूप उतार रहा था

    और सूरज अपनी पीठ से दिन को उतारते हुए

    समुद्र में डूब रहा था

    मैं सर्कस में बंदर की ज़िंदगी जी रहा था

    शेर पिंजरे में बंद असहाय ग़ुर्रा रहा था

    और उसके सामने सर्कस का मदारी

    बंदर को नचा रहा था

    बंदर ख़ुश होकर नाच रहा था या भय से

    यह कोई जानना नहीं चाहता था

    सब केवल इस दृश्य का आनंद ले रहे थे

    कि शेर के सामने बंदर नृत्य कर रहा है

    मैं हर एक दृश्य में अपने को मरते हुए देख रहा था

    और स्वर्ग वाले क़िस्से पर इस तरह विचार कर रहा था

    कि अगर वह आकाश के अंतिम माले पर है

    तो उसके ठीक नीचे वाले माले पर

    जहाँ क़तई शोर-शराबा नहीं होगा

    ईश्वर के साथ चाय पीना कैसा रहेगा

    मज़ेदार बात यह है कि

    यह सब करते हुए मैं दुखी नहीं था

    जबकि ऐसा लग रहा था कि

    मुझे दुखी होना चाहिए था उस समय

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश आलोक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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