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जब तुम्हें लिखकर भी भूल नहीं पाऊँगा

jab tumhein likhkar bhi bhool nahin paunga

दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह

जब तुम्हें लिखकर भी भूल नहीं पाऊँगा

दूधनाथ सिंह

और अधिकदूधनाथ सिंह

    जब तुम्हें लिखकर भी भूल नहीं पाऊँगा।

    तो... चुप हो जाऊँगा।

    इस प्रेत-मठ के जंगलों पर नहीं लटकाऊँगा तुम्हें

    तुम्हारी हड्डियों में सूराख़ कर फूल-मालाएँ पिन्हाऊँगा नहीं।

    सीढ़ियों पर से आवाज़ नहीं दूँगा

    गहरी नींद से जगाऊँगा नहीं;

    परिचित दीवारों को छू कर

    लौट आऊँगा।

    खुले चौराहों, अधखुली ऋतुओं या काँपते मकानों

    औंधी किताबों या सपने बहाती नदियों की काली-काली धाराओं

    ख़ून को तलाशती हवाओं

    या घन होती संध्या-रेती के बीच

    तुम्हारी आहट पकड़ कर

    टटोलूँगा नहीं!

    बारिश में झरे हुए फूल, हरे रंग, बीते आकाश की फुहार

    पीले वसन में निर्वसन कोई धूप-रूप, एकत्र नहीं करूँगा,

    तुम्हारे कानों में गुनगुनाया हुआ कोई गीत—फिर,

    फिर गुनगुनाता, सड़कों का अंत नहीं करूँगा;

    एकाकी दुपहर के दुःख से तिलमिला

    हरी-हरी घास में मुँह डाल धरती—माँ से कुछ कहूँगा नहीं।

    निर्णय भी किसी से माँगूँगा नहीं

    उसे भी तुम्हीं पर छोड़—फिर

    किसी वन की सीमा-रेखा पर

    पतझर के झर-झर भोर में देखूँगा

    सदाबहार वृक्षों से चिड़ियों का उड़ते जाना... उड़ते जाना...

    उड़ते जाना

    जब तुम्हें लिखकर भी मेरे कवि!

    भूल नहीं पाऊँगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपनी सदी के नाम (पृष्ठ 69)
    • रचनाकार : दूधनाथ सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य भंडार
    • संस्करण : 2014

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