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जब तुम मिलीं

jab tum milin

सुशीलनाथ कुमार

सुशीलनाथ कुमार

जब तुम मिलीं

सुशीलनाथ कुमार

और अधिकसुशीलनाथ कुमार

    वह शायद फ़रवरी था

    बचपन और किशोरवय गेंदा थे

    पर अब गुलाब अच्छा लगने लगा

    उसकी ख़ुशबू तलब-सी लगती

    नहाने का साबुन, रूमफ़्रेशनर और अगरबत्ती

    रोज़ फ़्लेवर वाले हो गए

    पड़ोस के गमलों से फूल तोड़ने में

    हाथ लहूलुहान हो गया

    मुँह पोंछने का रूमाल गुलाबी हो गया

    मैंने चाहा कि तुम

    घुन बनकर खा लो मेरे जिस्म का काठ

    तुम घुन नहीं थीं

    मैंने गढ़नी चाही पत्थर की मोनालिसा

    पर रास्ते के कंकड़ से मूर्ति नहीं बनती

    ही उसमें छवि होती है

    नर्मदा के शिव की

    मैंने कंकड़ को उठाकर फेंक दिया

    मुझे लकड़ी को बचाना था

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुशीलनाथ कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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