जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं
jab sneh ke deep timtimane lagte hain
शरच्चंद्र मुक्तिबोध
Sharchchandra Muktibodh
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं
jab sneh ke deep timtimane lagte hain
Sharchchandra Muktibodh
शरच्चंद्र मुक्तिबोध
और अधिकशरच्चंद्र मुक्तिबोध
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं :
जब अँधेरे के कमज़ोर क़दम
तेज़ी से बढ़ते आते हैं, हमारी ओर,
जब दीवार पर उपेक्षा की छायाओं के बीच;
घिनौनी खुसर-पुसर चलती है,
जिन चरणों पर टेक दिया था सिर
उन्हीं पाँवों के चट्टानी आघातों से
जब माथा लहूलुहान हो जाता है,
तब तुम्हारा मन
खंड-खंड होकर क्यों बिखर जाता है?
तब
शरबिद्ध घायल पंछी की तरह
क्यों तड़पता है तुम्हारा दिल?
तब क्यों लगता है ऐसा
कि घबरा के ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाएँ;
तब ऐसी इच्छा क्यों होती है
कि शिकायत-भरे स्वर में
चीख-चीख कर
रात को भी कर दें परेशान?
तब क्यों, आख़िर क्योंकर,
मरने की इच्छा होती है
ओर जी चाहता है
कि मरते-मरते भी
दे जाएँ अनगिन अभिशाप।
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं :
जब उनके प्रकाश की किरणें
तुम्हें छोड़ कर
किसी और पर चमकने लगती हैं;
जब मन में सहेजी हुई अभिलाषाएँ
धूल में मिलकर
काली निराशा के ढेर के नीचे,
दफ़ना दी जाती हैं
जब नियति के अदृश्य आघातों से
फर-फर उड़ने वाला जहाज़
टुकड़े-टुकड़े होकर
अँधेरे में भटकता है,
तब तुम्हारी मुट्ठियों में बंद ध्रुवतारा
कहाँ चला जाता है?
तब तुम्हारी आत्मा के
करुण आकाश का रंगीन पट
चिथड़े-चिथड़े क्यों हो जाता है?
और क्यों शेष बचता है
अंधी पुतलियों को हिलाने वाला
आदि-अंतहीन, मात्र एक शून्य।
जिसका तुमने उड़ाया था मज़ाक़,
बच्चों की तरह अँगूठा दिखाके,
किया था भयभीत,
उसकी नि:शब्द
और ठंडी साँसों से ही
तू इस क़दर घबरा क्यों गया?
और तुरंत अर्पित कर दिया
अपना सर्वस्व उन चरणों पर
(तेरी उस कथा में तो
तेरी आत्मा के स्वर संचित थे)
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं :
जब अचूक विश्वासों के फ़ार्मूले
ग़लत हो जाते हैं;
अनजाने रखी हुई कुरसियाँ
और बेंचें चाहे ग़लत न हों
मगर झूठे पड़ जाते हैं
प्रेम के समीकरण;
जब एकाएक दिल का पड़ोस छोड़कर
कोई दूर चला जाता है
जब दरवाज़े पर
आ खड़ा होता है सिपाही
अज्ञात अपराधों का वारण्ट लेकर;
जब अंतरतम के मसीहा को
दिन-दहाड़े रास्ते पर से,
घसीटते ले जाते हैं,
क्रूस पर चढ़ा कर
और ऊँचे उठे हुए हाथों में
जब सचमुच ही
ठोंक दी जाती हैं क्रूर कीलें;
जब तुम्हारे आह्वान के स्वर
क्षितिज के एक कोने पर खड़े होकर
तुम्हीं को पागल क़रार देते हैं;
तब क्यों
किसी दुष्ट की लात खाकर
कूँ-कूँ चिल्लाता हुआ
भागता जाता है
कहीं दूर, अहंकारी श्वान एक?
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं :
जब घुर्राटे भरने वाले अँधेरे की
पीठ दिखाई देती है
दिखता नहीं पेट मगर;
जब छाता पर टिके हुए ख़ंजर की
धार दिखाई देती है,
दिखते नहीं हाथ मगर;
और पास खड़ा हुआ शैतान हँसता है,
इनसान नहीं दिखता मगर;
तब
तुम्हारी आस्था का ताबूत
बिना जले ही राख हो जाता है;
और बिखर जाता है
कल्पना के तिनकों से
बनाया हुआ मासूम महल;
जब स्नेह के दीप टिमटिमाने लगते हैं :
व्यर्थ ही ढोते रहे यह काया
जाना नहीं सत्य,
व्यर्थ ही थकाई जिह्वा
भोगी नहीं पीड़ा,
प्रेम किया मगर
मन में करते रहे जोड़-तोड़,
स्नेह तो था उनके पास
तेरे पास थी महज अहं की ज्वाला।
सत्य, सत्य, केवल सत्य
यह अमर वाणी उनकी ही,
बाक़ी लोगों के पास
सिर्फ़ बहानेबाज़ी;
वह अघोर रौद्र सत्य
देखने का साहस जो करे
मृत्यु स्वयं देगी उसको उपहार।
जब स्नेह के दिए टिमटिमाने लगते हैं :
सिर्फ़ उन्हीं क्षणों में
'स्व' को जानना चाहिए
सिर्फ़ तभी
स्वतः की सामर्थ्य तौलना चाहिए;
और तभी
अंतर की आत्मीयता जगा के
वही प्राचीन,
चिरपुरातन
नित नूतन अर्थों वाली
पुकार लगानी चाहिए;
तभी खोजना चाहिए
पत्थरों में छिपे हुए झरने,
तभी लेना चाहिए
काँटों में छिपे फूलों की आहट,
और सिर्फ़ तभी
'आज' के अकेलेपन में भी
आने वाले 'कल' का आनंद भोगना चाहिए;
और उन क्षणों में ही
जीवन का पूरा मूल्य चुकाना चाहिए;
और फिर करना चाहिए
सशक्त शब्दों की घोषणा :
जब स्नेह के दीप टिमिमाने लगते हैं।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 202)
- रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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