‘जब सब जय-जयकार कर रहे थे’
‘jab sab jay jaykar kar rahe the’
‘जब सब जय-जयकार कर रहे थे तो तुम क्या कर रहे थे?’
चुप था, जयकार में शामिल नहीं था।
‘माना कि चुप थे, पर इसका अर्थ सहमति भी तो हो सकता है!’
सही है पर जानता हूँ कि सहमत नहीं था, न हूँ। मेरे लिए वह काफ़ी है।
दूसरे क्या सोचते हैं इसकी मुझे चिंता नहीं।
‘तुम्हें पता है कि तुम्हारे जैसे कितने हैं?’
नहीं, बहुत नहीं होंगे ऐसा अंदाज़ है।
पर इससे क्या,
हमारे समय में सच लगातार अल्पसंख्यक होता जाता है।
‘यह कैसे कह सकते हो कि सच तुम्हारे पास है?’
नहीं कह सकता,
उसके होने और वह भी मेरे पास होने दोनों पर शक करता हूँ।
पर उस पर अड़े रहने के अलावा और चारा ही क्या है?
‘इस तरह अकेले पड़ जाने, पड़ते जाने से क्या हासिल?’
कुछ नहीं। यों अकेलापन हासिल करना
हमारे चीख़-पुकार और भीड़ भरे समय में कितना मुश्किल है!
‘हो सकता है कि तुम्हारी समझ का दिवाला निकल गया हो
और तुम सचाई को ठीक से समझ नहीं पा रहे हो?’
बिल्कुल हो सकता है, सारे शकों के बावजूद
अकेलेपन और अंत:करण पर भरोसा है,
समझ पर नहीं।
सचाई में थोड़ा-बहुत हिस्सा है पर
औरों का हिस्सा मेरे से कहीं ज़्यादा है।
‘थोड़ी-सी सचाई से संतुष्ट हो?’
नहीं अपनी सचाई, अकेलेपन और अंत:करण सभी से असंतुष्ट हूँ
पर उनका साथ नहीं छोड़ सकता।
कवि होने का अब इतना अर्थ बचा है।
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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