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जब नहीं मिली थी

jab nahin mili thi

उमाशंकर जोशी

उमाशंकर जोशी

जब नहीं मिली थी

उमाशंकर जोशी

जब नहीं मिली थी,

तब मैंने तेरी कितनी खोज की थी?

भटकता कान्तारों में

कलकल करते झरनों के तट पर घूमा,

रौंदे गिरिवर के स्कंधपट

और द्रुमों की डाली-डाली पर विहगों के नीड़ों में झाँका।

जब नहीं मिली थी दिन भर की जागृति में,

मिली थी स्वप्नों में मदिर मिलनों की सुरभि से युक्त।

सुगंध से प्रेरित दिनभर खोज में रहा,

दिवास्वप्न में यदाकदा तेरी झाँकी होने से

थकान होने पर भी, मालूम हुई।

मिली आख़िर, सकल स्वप्नों से भी जो स्वप्नमय।

मिली आशाओं के क्षितिज के भी जो पार, वह सुधा।

सूनी आयु-नौका मेरी डोलती थी अस्थिर जल में,

जगत-झंझानिल में

पतवार को सँभालने वाली तू मिली।

जब नहीं मिली थी, प्रिये,

जलथल में तुझे खोजा था।

आज मैं खोज रहा हूँ तुझमें वे सभी पदार्थ।

स्रोत :
  • पुस्तक : निशीथ एवं अन्य कविताएँ (पृष्ठ 19)
  • रचनाकार : कवि के साथ रघुवीर चौधरी, भोलाभाई पटेल
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
  • संस्करण : 1968

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