इसे व्यक्ति का नहीं, राष्ट्र का नुक़सान माना जाए
ise wekti ka nahin, rashtra ka nuqsan mana jaye
लक्ष्मण गुप्त
Laxman Gupta
इसे व्यक्ति का नहीं, राष्ट्र का नुक़सान माना जाए
ise wekti ka nahin, rashtra ka nuqsan mana jaye
Laxman Gupta
लक्ष्मण गुप्त
और अधिकलक्ष्मण गुप्त
एक
सालों से मैं दूर रहा अपने घर से
और जहाँ मैं रहा
वह तो बस उतनी ही जगह थी
जितनी में यह थका-हारा शरीर
अगली सुबह के लिए ख़ुद को तैयार कर सके
मेरे पास एक थैला था
जिसमें मेरे होने का सबूत तो था ही
मेरे सपने भी सुरक्षित थे
आप सोचेंगे कि सपने तो दिमाग़ में होते हैं
थैले में सुरक्षित होता है यथार्थ
आप जिस जगह पर खड़े होकर यह सोच रहे हैं
वह बिल्कुल सही है
मैं इस वक़्त जिस जगह पर खड़ा हूँ
वहाँ से यह सब उलट जाता है
मेरे सपने में नहीं आता कोई लुभावना मंज़र
नहीं आते बड़े महल, न ही आती हैं परियाँ
हाँ, अक्सर भूख आती है
और उसी के साथ आता है एक प्रेत
मेरे और रोटी के ठीक बीच में
मैं अक्सर ख़ाली हाथ नींद से लौटता हूँ
अब इस त्रासदी को सपना कहना
क्या सपने की तस्वीर को विद्रूप करना न कहा जाएगा
भला किसी कोमल चीज़ को
कठोर कहने का अधिकार कैसे मिल सकता है मुझे
सपनों के सौदागर कोर्ट में घसीट ले जाएँगे
न्यायाधीश दंडित करेंगे
मैं सपने का पूरा सम्मान करते हुए
उसे अपने यथार्थ से हर दिन अलग कर देता हूँ
किसी दिन बूढ़े बाप की क़मीज़ का कपड़ा लेकर
थैले में डाल देता हूँ
किसी रोज़
माँ के लिए सस्तीवाली दुकान से
सबसे सस्ती साड़ी ले आता हूँ
भाई के लिए फ़ूटपाथ से ख़रीदी गई
पचास रुपए की टी-शर्ट लाकर
सहेज देता हूँ
बेटियों के लिए आज ख़रीदूँगा कुछ
पत्नी की बारी सबसे अंत में
यदि कुछ बचा पाया तो
वैसे पिछली बार भी
उससे ख़ाली हाथ ही मिला था
यह कहते हुए कि अभी तो
पिछली बार वाली होगी ही बक्से में
यह जानते हुए भी कि उसने उसे
ननद को विदा करते हुए पहना दिया था
जिससे मुस्कुरा उठे माँ-बाप
आख़िर बेटी को मायके से विदा होते हुए
इतना तो मिलना ही चाहिए
माँ-बाप की तरफ़ से
दो
जैसे ही काम पर निकला
पुलिसवालों ने यह कहते हुए रोक दिया
कि काम पर जाना मना है
जिसको बीमारी पकड़ रही
उसको कोई बचा नहीं पा रहा
उसने अपने साथी से पूछा :
''क्या कहते है न उसको...''
उसने छूटते ही जवाब दिया :
''कोरोना... कोई रोनेवाला नहीं, यदि इससे मरे तो”
मैंने कहा कि खाएँगे क्या?
हम तो रोज़ कमाते और खाते हैं
“हम क्या जानें... सरकार से पूछो”
सरकार से हम कैसे पूछें!
“यहाँ से जाते हो या दो-चार दूँ...”
लौटते हुए जितना मैं आगे देखता
उससे कहीं ज़्यादा पीछे
शायद, लोग जा रहे हों काम पर
मैंने कुछ ग़लत सुना हो
नहीं, नहीं, उसने कहा था, “सब बंद हो जाएगा”
कुछ दिन देखता हूँ, काम न शुरू हुआ तो गाँव चला जाऊँगा
अभी तो बेटियों के लिए भी कुछ न लिया
कुछ दिन बाद जाना ही था
गेहूँ की कटाई में
यह सब भी अभी ही होना था
आज कई दिन बीत गए
काम-वाम तो ठप पड़ा है
घर भी जाऊँ कैसे
गाड़ी-घोड़ा सब बंद...
कितना दुःख पसरा होगा घर पर
कैसे होता होगा गुज़र
अपना क्या, आदत-सी है
कभी चाय तो कभी पानी तक से
गुज़ारा करने की
और फिर लंबी क़तारों में लगकर कुछ तो मिल ही जाता है
यह अलग बात है कि किसी दिन ख़ाली भी लौट आता हूँ
पर सोचता हूँ कि इस दुःख की घडी में
अपनों के साथ होता तो कुछ दुःख मैं भी बाँट लेता
आप जानते हैं
मेरे जैसे लोग सुख साथ नहीं बाँट पाते
आप की भाषा कहती है कि मैंने सैंतीस वसंत देखे हैं
जबकि मेरी स्मृतियों में एक भी वसंत शामिल नहीं
हम तो पैदा होने से मृत्यु तक
पतझड़ की तलहटी पर साँस लेते हैं
संयोग और संगनी यह शब्द कभी हमारे
पक्ष में नहीं हो पाए
सत्रह बरस की शादीशुदा ज़िंदगी में
बमुश्किल सत्रह महीने भी नहीं बिता पाए हम
दुःख-सुख एक ही बिस्तर पर
अब जब मरना तय लगता है
तो कम से कम इसे तो एक ही बिस्तर पर होना चाहिए था
एक-दूसरे का हाथ थामे
एक-दूसरे को दिलासा देते हुए
अफ़सोस यह भी नामुमकिन हो रहा है
मेरा सुख मेरी व्यक्तिगत हानि हो सकता था,
लेकिन मेरा दुःख व्यक्तिगत नहीं,
राष्ट्र का नुक़सान माना जाए
जब भी कोई हिसाब करे इस महामारी में मरने वालों का
भूख से मरने वालों का आँकड़ा भी नत्थी किया जाए उसमें
जो अवसाद से मरे होंगे अपनों के बग़ैर तड़प-तड़पकर
अंत में ही सही जोड़ दी जाए उनकी भी संख्या
और इनमें जो कामिल रहे होंगे
उनकी संख्या में पाँच से गुणा करते हुए
तय हो मरने वालों की संख्या
क्यूँकि उनके मरते ही मर गया होगा
पूरा का पूरा कुनबा
नहीं मिलेंगे भविष्य के ललाट पर जिनके निशान!
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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