इधर से खुले दरवाज़े
idhar se khule darwaze
इधर से खुले दरवाज़े देख
हवा अंदर आ सकती थी और
कोई भी
जिसे प्रयोजन हो।
हवा शायद निष्प्रयोजन
या कि नैसर्गिक
हर शून्य के भराव के लिए
चली आई
और कोई दूसरा
सप्रयोजन इसलिए कि
उसे भी भरना शून्य है अपना या
अपनी आवश्यकताओं का
प्रयोजन यही है।
कुछ भी हो सकता है मसलन
वक़्त कटी
या अहं प्रदर्शन
दोनों मिले-जुले हैं
दरवाज़ें और शून्य की तरह
प्रयोजन और निष्प्रयोजन की तरह।
अर्थात्
अभी गुंजाइश है कि हम बहस से
पहले ही तय कर लें
कि क्या कुछ है
क्योंकि जो दरवाज़ा खुला है देखना है
उससे क्या कुछ आ सकता है और जा भी...
- पुस्तक : मैं वहाँ हूँ (पृष्ठ 38)
- रचनाकार : गंगाप्रसाद विमल
- प्रकाशन : किताबघर
- संस्करण : 1996
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