हम सभी बेचकर आए हैं अपने सपने
hum sabhi bechkar aaye hain apne sapne
विजय देव नारायण साही
Vijay Dev Narayan Sahi
हम सभी बेचकर आए हैं अपने सपने
hum sabhi bechkar aaye hain apne sapne
Vijay Dev Narayan Sahi
विजय देव नारायण साही
और अधिकविजय देव नारायण साही
आओ साथी,
हम सभी बेचकर आए हैं अपने सपने
उस चोटी पर
कल रात जहाँ पर बनजारों का लश्कर था।
कुहराम, शोर, बोलियाँ, दाँव, बेचैन गीत,
वह बड़ी-बड़ी नशीली रात सभी ने देखी है;
हर ख़ेमे में रिंदों की पागल आवाज़ें,
हर ओर चमकते जादू-सी बेसुध आँखें
हर तरफ़ नाचती ज्वालाएँ तलवारों-सी,
आतिशबाज़ी की तरह हँसी के फव्वारे,
टूटते हुए प्यालों की घायल झनकारें,
हर नए मुसाफ़िर के कंधे पर गर्म हाथ,
हर नए अछूते सपने के लिए मान,
सब यों ही था।
लगता था जैसे जीवन का आख़िरी सत्य
जिस को हमने, केवल हमने ही देखा है
जादू बन कर मुट्ठी में आने वाला है :
मन में बिल्कुल ऐसा ही पावन साहस था
पैरों में बिल्कुल यह अनोखी निष्ठा थी
आँखों में कच्चे, निष्कलंक व्याकुल सपने!
जलते माथे पर सूने कुहरे की छाया,
टूटती पसलियों में रीता, गूँजता दर्द,
ख़ाली जेबों में हाथ दिए, सामर्थ्यहीन,
बिल्कुल यों ही,
सब कुछ खो कर
हम सभी उतर कर आए हैं इस घाटी में।
विश्वास करो,
यह सिर्फ़ तुम्हारा दोष नहीं,
यह नहीं कि सिर्फ़ तुम्हारी क़िस्मत झूठी थी
यह नहीं कि केवल तुम से ही थी चूक हुई;
उस पर्वत का जादू ही ऐसा होता है,
हम सबने उस मदहोशी में—
नक़ली सच्चाई के बदले अनमोल सितारे बेच दिए।
जब हम अपना सब कुछ खोकर
रोते-रोते से बाहर आ कर खड़े हुए,
बंदिनी बहन की तरह, सिर्फ़
अपन हारी आस्थाओं की
रोशनी हमें पहुँचाने बाहर तक आई,
फिर दरवाज़े हो गए बंद;
इसके आगे क्या हुआ हमें भी याद नहीं।
बस इसी तरह,
जब आँख खुली
इस घाटी के पीछे से था सूरज निकला।
तिरछी-तिरछी किरनें फूटों,
नन्हीं दूबों की पत्ती पर
बेदाग़ ओस की चटकीली
बूँदों ने, भोले बच्चों-सा
था प्रश्न किया :
‘क्या हुआ तुम्हें?'
निःश्वास छोड़
हम सभी रहे थे खड़े कुतरते होंठों को।
सचमुच जो कुछ भी हुआ बहुत अनहोना था,
लगता है कुछ जैसे काँटा-सा निकल गया,
बस भरे गले में एक प्रश्न
रह-रह उतराया आता है—
‘अब क्या होगा?’
साथी अब संभव नहीं पार वापस जाना,
तुम भी इस घाटी में बस कर
नन्हे, फूलों से सपनों की
छोटी-सी फ़सल उगा लेना।
बेशक, इनमें तूफ़ानों को
मधु-सिंचित करने वाली गंध नहीं होगी;
ये सरल स्वप्न
यदि बहुत हुआ
तो सूरज उगने पर अपनी बाँसुरी खोलकर हँस देंगे,
लेकिन इनका सौदा करने
अब कभी न बनजारों का लश्कर आएगा।
- पुस्तक : संवाद तुमसे (पृष्ठ 41)
- रचनाकार : विजय देव नारायण साही
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1990
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