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हम लौट रहे हैं

hum laut rahe hain

राही डूमरचीर

राही डूमरचीर

हम लौट रहे हैं

राही डूमरचीर

और अधिकराही डूमरचीर

    रिमिल ने

    सामने की तरफ़ दिख रहे

    पहाड़ को दिखाते हुए कहा—

    हमारी चिंता इसे बचाने की है

    हँसी आई न?

    तुम्हारे सभ्य चेहरे की

    इस ख़ास कुटिल मुस्कान को

    समझने लगे हैं अब

    हमें मुस्कुराहटों में ज़हर

    घोलने की आदत नहीं

    इसलिए समझते देर लगी

    कितना कुछ समझते?

    हमारे फ़ुटबॉल के मैदानों को

    कब तुमने क्रिकेट के मैदानों में बदल दिया

    हम समझ ही नहीं पाए

    मैदान में खेलने वाले

    तुम्हारे लोगों की संख्या बढ़ती गई

    हमारे फ़ुटबॉल मैच को जितने लोग नहीं देखते

    उससे कहीं ज़्यादा तुम्हारे खेलने वाले होने लगे

    एक ही मैदान पर बारह-बारह पिच बन गए

    इस भीड़ में खेलते कैसे हो तुम लोग?

    हम तो देखते हुए भी ओझरा जाते हैं

    हमें तो खुले आसमान के नीचे

    एक मैदान पर एक ही मैच खेलना आता है

    खेल ही तो है

    सोच कर खेलते देखते रहे तुम्हें

    पर खेल तो कहीं और रहे थे

    जब तक समझ पाते

    हम शहरों की पराई गलियों में धकेल दिए गए

    अपने ही घर में परदेशी बना दिए गए

    हमारे ही गाँव, टोला, मुहल्लों से

    हमारे लोग एक-एक कर ओझल होते गए

    तेज़ी से बढ़ते तुम्हारे घरों की क़तारों ने

    हमारी ज़मीन पर

    गलियों का सैलाब ला दिया था

    तुम्हारी उन गलियों से गुज़रते

    तकलीफ़ होने लगी थी हमें

    हमीं से बुलंदी चढ़ते रहे

    और तुम्हारी आँखों में हमीं चुभते रहे

    अरे हाँ, आँखों पर ख़ूब गीत कविता लिखी हैं

    तुम लोगों ने तो

    तीर, कमान, झील, दरिया पता नहीं कितना कुछ कहा है आँखों को?

    ठग तक कहा है

    हम ही नहीं समझ पाए

    बार-बार ठगे जाते रहे

    और तुम्हारे ही बनाए गाने

    मशग़ूल हो अपने ख़िलाफ़ गाते रहे

    आँखों पर इतना प्यार बरसाने वाले तुम लोग

    ऐसी आँखें कहाँ से लाए

    जो पहाड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं

    नदी देखती हैं तो पैसा देखती हैं

    पेड़ देखती हैं तो पैसा देखती हैं

    हमें देखती हैं तो फ़ायदा देखती हैं

    सचमुच इतने कमाल की आँखें

    कहाँ से पाईं?

    कहो अपने गीतकारों से

    क़सीदे पढ़ें फिर से तुम्हारी इन मतवाली आँखों के

    पूछो कि काले चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता काला चश्मा?

    हमारे चेहरे पर क्यों नहीं जँच सकता?

    हमारी नहीं तो

    अपने ही घर के कालों की फ़िक्र कर लेते

    जो बेचारे ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ लिखी गाड़ियों में

    ख़ुशियों से लहराते फिरते हैं

    ख़ैर,

    तुम्हारी तुम जानो

    हमारी भी अब हम ही जानेंगे

    जंगल, पहाड़, नदियों के उजड़ने से

    सरना माँ नाराज़ हो जाती हैं

    कोप बरसाने लगते हैं सिंग बोंगा

    मीलो-मील पैदल चलकर

    हम वापस लौट रहे हैं

    तुम्हारी कभी ख़त्म होने वाली गलियों से

    अपने खुले आसमान में वापस जा रहे हैं

    डरो मत

    तुम्हारे काटे हुए पेड़ों का हिसाब

    तुम्हारे बच्चों से नहीं माँगेंगे

    ऑक्सीजन! हमारे हिस्से के पेड़

    पहुँचाते रहेंगे उन तक

    बस हो सके

    तो अगली बार जब धूप में निकलो

    अपने बच्चों को

    इमारत की छाँव और

    पेड़ की छाँव में

    फ़र्क़ करना सिखाना।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राही डूमरचीर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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