हरेक रंगों में दिखती हो तुम-चार
harek rangon mein dikhti ho tum chaar
लक्ष्मीकांत मुकुल
Laxmikant Mukul
हरेक रंगों में दिखती हो तुम-चार
harek rangon mein dikhti ho tum chaar
Laxmikant Mukul
लक्ष्मीकांत मुकुल
और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल
शगुन की पीली साड़ी में लिपटी
तुम देखी थी पहली बार
जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल
सरसों के फूलों से छा गए हो खेत
भर गई हो बगिया लिली-पुष्पों से
कनेर की लचकती डालियाँ डुल रही हों धीमी
तुम्हें देखकर पीला रंग उतरता गया
आँखों के सहारे मेरी आत्मा के गहवर में
समय के इस मोड़ पर नदी किनारे खड़ा एक जड़ वृक्ष हूँ मैं
तुम कुदरुन की लताओं-सी चढ़ गई हो पुलुई पात पर
हवा के झोंकों से गतिमान है तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
तुम्हारे स्पर्श से थिरकता है मेरा निष्कलुश उदवेग
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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