हरेक रंगों में दिखती हो तुम-एक
harek rangon mein dikhatee ho tum-ek
लक्ष्मीकांत मुकुल
Laxmikant Mukul
हरेक रंगों में दिखती हो तुम-एक
harek rangon mein dikhatee ho tum-ek
Laxmikant Mukul
लक्ष्मीकांत मुकुल
और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल
मदार के उजले फूलों की तरह
तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में
तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता
सूँघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध
तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता
तुम्हारी पनीली आँखों में छाया पोखरे का फैलाव
तुम्हारी आवाज़ की गूँज में चूते हैं मेरे अंदर के महुए
जब भी बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा
डुलती है चाँदनी की हरी पत्तियाँ अपने धवल फूलों के साथ
मचलता हूँ घड़ी दो घड़ी के लिए भी
बनी रहे हमारी सन्नीकटता
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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