हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था...
वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकती थीं
यह गंध वनचंपा की है
और वह दूधमोगरा की,
ऐसा कहते तुम्हारी आवाज़ में उतर आती थी
वासंती आग में लिपटी
मौलसिरी की मीठी मादकता,
सागर की कोख में पलते शैवाल
और गहरे उल्लास में कसमसाते
संतरों का सौम्य उत्ताप
तुम्हें बाढ़ में डूबे गाँवों के अंधकार में खिले
लालटेन-फूलों की याद दिलाता था
जिनमें कभी हार नहीं मानने वाले हौसलों की इबारत
चमक रही होती थी।
मुझे फूल और चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान
लेकिन मैं पहचानता था रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट में तलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़ मुझे सुनाई दे जाती थी
रहस्यमय मुस्कानों के पीछे उठतीं
आग की ऊँची लपटों में झुलस उठता था
मेरा चौकन्नापन
और हलकान होती संवेदना का संभावित शव
अगोचर में सजता दिखता था मूक चिता पर।
तुम्हें पसंद थी चैती और भटियाली
मुझे नज़रुल के अग्नि-गीत
तुम्हें खींचती थी मधुबनी की छवि-कविता
मुझे डॉली* का विक्षोभ
रात की देह पर बिखरे हिमशीतल नक्षत्रों की नीलिमा
चमक उठती थी तुम्हारी आँखों के निर्जन में
जहाँ धरती नई साड़ी पहन रही होती थी
और मैं कंदराओं में छिपे दुश्मनों की आहटों का
अनुमान किया करता था।
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था...
एक थी हमारी धड़कनें
सपनों के इंद्रधनुष का सबसे उजला रंग... एक था
अक्सर एक-सी परछाइयाँ थीं मौत की।
घुटनों और कंधों में धँसी गोलियों के निशान एक-से थे
एक-से आँसू, एक-सी निरंतरता थी
भूख और प्यास की,
जिन मुद्दों पर हमने चुना था यह जीवन
उनमें आज भी कोई दो राय नहीं थी।
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*विश्वप्रसिद्ध चित्रकार सल्वाडोर डॉली।
- रचनाकार : उत्पल बैनर्जी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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