हलफ़
halaf
मैं हलफ़ उठा तो सकता हूँ
और वह वक़्त आ गया है मेरी ज़िंदगी में
कि मुझे उसे उठाने में देर या कोताही नहीं करना चाहिए
लेकिन सवाल यह है कि मैं कहाँ हलफ़ उठाऊँ :
मेरी कोई अदालत नहीं
और दूसरों की अदालत पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
मुझे पता है कि हमारा समय ऐसा है कि
किसी को किसी जुर्म के लिए नहीं,
सिर्फ़ अपना सिर न झुकाने और ऊँचा रखने के लिए
सूली पर चढ़ाया जा सकता है।
कटघरे में खड़े किए जाने के लिए
न सबूत की ज़रूरत है, न जुर्म के इक़बाल की
क्योंकि फ़ैसला पहले से, बिना किसी जिरह के, लिखा जा चुका है।
कोई मतलब नहीं है मेरे कुछ भी क़बूल करने का या कि
दूसरों की कुछ भी ज़िम्मेदारी का ज़िक्र तक करने का।
मज़ा यह है कि समय सबको मारता है
कुछ को तड़पा कर, कुछ को एकबारगी बिना पलक झपकाए
या मुहलत दिए।
मुजरिम तो मारा ही जाता है, देर-सबेर जज भी।
अब किसी अदालत में जाकर आप कैसे कहेंगे कि
आपने सुबह ओस-जल पत्तियों से टपकते,
शाम को एक चिड़िया को प्रार्थना गुनगुनाते,
खिड़की पर एक बूढ़े को बेवजह चिड़चिड़ाते,
एक आततायी को शास्त्रीय संगीत सुनते,
एक दुष्ट को कला की बारीकियाँ समझाते,
एक देवता को लोगों को बरगलाते,
एक सत्ताधारी को टुच्चा बदला लेते देखा है?
कह तो आप यही सकते हैं कि
आपसे नहीं हो सका युद्ध,
आप नहीं कर सके इनकार,
आपके लिए मुमकिन नहीं था अपने को अलग या दूर कर लेना।
कविता लगातार हलफ़ उठाना है
कहीं और नहीं
उस अदालत में,
जो हर कहीं है
और दरअसल कहीं नहीं।
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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