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ग्यारह बरस की माँ

gyarah baras ki man

उपासना झा

उपासना झा

ग्यारह बरस की माँ

उपासना झा

और अधिकउपासना झा

    उसे नहीं भाती देर रात

    शिशु की रुलाई

    उठते डर लगता है उसे कम रौशनी में

    अचानक उसकी टूटती है नींद

    माघ की ठंड में उसकी गात है

    पसीने से धुली हुई

    ***

    एक क्षण को कभी

    मन में उठता है दुलार

    उमगती है नसों में एक पवित्र अनुभूति

    अवयस्क उसकी छातियों में

    उतरता है दूध

    लेकिन ये क्षण भीषण अंधकार को

    पाट नहीं पाते

    ***

    उसके सपनों में परियाँ नहीं आतीं

    उसकी किताबें हैं

    बोरी में बंद, दुछत्ती पर धरी हुई

    छोटे भाई की किताबों को

    देखती है छूकर

    सोचती है कि स्कूल जाना

    उसे इतना तो नापसंद था

    ***

    नहीं आती उसकी सहेलियाँ अब घर

    गुड्डे-गुड़ियों की बारात में

    उसकी अब कोई ज़रूरत नहीं

    छुपमछुपाई में अब उसकी डाक होती है

    उसे कर दिया गया है निर्वासित

    जीवन के सभी सुखों से

    ***

    दादी अब नहीं देती उसे मीठी गालियाँ

    पिता की आँखों में सूनेपन के सिवा कुछ नहीं

    चाचा के ग़ुस्से की जगह

    बैठा है डबडबाया हुआ पछतावा

    क्यों नहीं रखा उन्होंने उसका ध्यान

    माँ को बोलते अब कोई सुनता

    ***

    उसे नहीं धोने इस शिशु के पोतड़े

    उसे खेतों में फूली मटर

    और सरसों के पीले फूल बुलाते हैं

    लेकिन यह अब किसी और ही

    युग की बात लगती हो जैसे

    उसे डर लगता है शंकित आँखों

    और हर तरफ़ फुसफुसाहटों से

    ***

    इस घर में शिशु-जन्म

    ऐसा शोक है जिसमें यह घर है संतप्त

    यह शिशु है अवांछनीय, अस्वीकृत

    हर दिन यह परिवार कुछ और ढहता है

    देश का अंधा क़ानून आत्ममुग्ध है

    अपने अँधेरे कमरे के फ़र्श पर बैठी

    यह ग्यारह बरस की माँ

    किसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती...

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपासना झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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