एक
उग्र रूप धारण कर जिसमें दिनकर भूमि तपाते हैं,
हो जाते हैं शुष्क जलाशय वृक्षादिक कुम्हलाते हैं।
प्राणिमात्र गर्मी से जिसमें होते हैं अतिशय बेहाल,
आया वही निदाघ काल यह दुस्सह काल-समान कराल॥
दो
धूल और पत्तों को लेकर हवा ज़ोर से चलती है,
तप्त हुई अवनी आतप से मानो भीतर जलती है।
जिधर देखिए उधर आग-सी लगी हुई दिखलाती है,
प्रलयकाल का दृश्य भयंकर गर्मी याद दिलाती है॥
तीन
कड़ी धूप के कारण झुलस रहे हैं तरु सारे,
किंतु जवासा आक आदि हैं हरी-हरी शोभा धारे।
होता है दो समय एक को असहनीय अति दुखदायी,
वही दूसरे को होता है सब प्रकार से सुखदायी!
चार
उत्साहित कर दावानल को दिनकर प्रखर करों द्वारा,
जीव-जंतुओं से परिपूरित विपिन जलाते हैं सारा।
महा भंयकर दृश्य देख यह प्राण विकल हो जाते हैं,
खांडव-दाही पांडव के शर किसको याद न आते हैं?
पाँच
फूलों और फलों को शोभित हरे-भरे सौंदर्य-निधान,
चार दिवस पहले जो पादप देते थे आनंद महान।
दावानल में संप्रति वे ही अहो! भस्म हो रहे समूल,
कहो, क्या नहीं कर सकता है जब होता है विधि प्रतिकूल?
छह
आँधी से आपस में लड़कर आग स्वयं उपजाते हैं,
बाँस-वंश फिर उससे जल कर भस्म शेष हो जाते हैं।
आपस में लड़ने के फल को सबको प्रकट दिखाते हैं,
और दूर रहना दुष्टों से सोदाहरण सिखाते हैं॥
सात
सलिल समझकर मृगतृष्णा को परिभ्रमण मृग करते हैं,
देख पास भी उसको अपने नहीं सिंह से डरते हैं।
मानो यही सोचते हैं वे पाकर ग्रीष्म ताप भारी,
कठिन कष्ट पाने से तो है मर जाना ही सुखकारी॥
आठ
सुखद सुधाकर के प्रकाश में कोमल शय्या के ऊपर
सोते हैं अब भाग्यवान जन सब प्रकार के सुख पाकर।
तथा दुपहरी शीतल गृह में सोकर नित्य बिताते हैं,
नाना विध शीतोपचार कर तप को दूर भागते हैं॥
नौ
किंतु दीन लोगों के दुख का आज नहीं है पारावार,
प्रखर ताप के कारण उनकी दशा भयंकर हुई अपार।
वैसे ही तो क्षुधा-वह्नि से जलते थे वे सब दिन रात,
तिस पर गर्मी लगी जलाने उनका अति ही जर्जर गात॥
दस
हे निदाघ! हे ग्रीष्म भीष्म तप! हे अताप! हे काल कराल!
दया कीजिए हम लोगों पर देख हमें अतिश्य बेहाल।
वैसे ही हम मरे हुए हैं फिर हम पर क्यों करते वार,
मृतक हुए पर शूरवीर जन करते नहीं कदापि प्रहार॥
ग्यारह
दे-देकर संताप व्यर्थ ही क्यों तुम हमें जलाते हो?
दीन जान कर हमें हाय! क्यों मने में दया न लाते हो?
प्राणि मात्र को बिना हेतु जो कुछ भी पीड़ा देता है,
वह ईश्वर का कोप-पात्र हो पाप-भार सिर लेता है॥
बारह
जगत्प्राण से ही तुम हा! हा! प्राण हरण करवाते हो,
करके ऐसा निंद्य काम भी ज़रा नहीं शरमाते हो।
अथवा इसमें तुम्हें दोष हम हे तप! नहीं लगाते हैं,
समय-फेर से रक्षक जन भी तनु-भक्षक बन जाते हैं॥
तेरह
अति शीतल भू-गर्भ-गृहों में मंजुल शय्या के ऊपर,
चंदन-चचित प्रिया-हृदय पर रहते थे जो सुख पाकर।
संप्रति वे ही कठिन धूप में अन्न हेतु दुपहरी भर,
हाय! निंद्य से निंद्य काम भी करते सदा हमारे कर!
चौदह
जहाँ आज कल जल-यंत्रों की रहती थी सब काल बहार,
संप्रति वहीं देखिए बहती अश्रुधार है बारंबार।
धनियों के भी धनी आज हम भोग रहे यों कष्ट महान,
फिर भी क्या कुछ शेष रहा है होने को अब हा भगवान!
- पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली -1 (पृष्ठ 248)
- संपादक : कृष्णदत्त पालीवाल
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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