घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में
ghar se bahar nikalne ki gaDbaDi mein
विनोद कुमार शुक्ल
Vinod Kumar Shukla
घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में
ghar se bahar nikalne ki gaDbaDi mein
Vinod Kumar Shukla
विनोद कुमार शुक्ल
और अधिकविनोद कुमार शुक्ल
घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में
इतना बाहर निकल आया
कि सब जगह घुसपैठिया होने की सीमा थी।
घुसपैठिया कि देशिहा!
मेरी सूरत मुझको देखती है कि बदला नहीं।
चालाकी से अपनी सूरत की फ़ोटो मैंने
खिंचवा ली थी
कि बहुरुपिया होकर भी पहिचाना जाएगा।
सब्ज़ी बाज़ार में खड़ा होकर
मैं सोचता हूँ कि विद्रोही न कहलाने के लिए
मुझे कौन-कौन सी सब्ज़ी नहीं ख़रीदनी चाहिए।
मैं हमेशा जाता हुआ दिखलाई देता हूँ।
मैं अपनी पीठ बहुत अच्छी तरह पहिचानता हूँ।
- पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : विनोद कुमार शुक्ल
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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