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घर के बारे में एक और कविता

ghar ke bare mein ek aur kawita

शिरीष कुमार मौर्य

शिरीष कुमार मौर्य

घर के बारे में एक और कविता

शिरीष कुमार मौर्य

और अधिकशिरीष कुमार मौर्य

    मैं एक घर छोड़कर दूसरे में गया

    पहला किराए का था चार साल से अपना लगता था

    नया चमाचम अपना है महीने भर पहले सौंपा गया किराए का लगता है

    कहाँ गया हूँ

    मेरे पिछले घर की मकड़ियाँ

    ख़ामोश चलती होंगी कोनों में

    बत्तियाँ जलनी बंद हो गईं फ़िलहाल वहाँ तो कीड़े भी नहीं आएँगे

    वे जाले में क्या फँसाएँगी

    क्याा खाएँगी

    मुझे उनकी भूख महसूस हो रही है

    रसोई में देर रात बिलखती घूमती छछूंदर

    अब भड़भड़ाती घूमती होगी हमारे होने को धिक्कारती

    अपनी चुकचुकाती विशिष्ट आवाज़ में

    मुझसे दूर उसकी उसकी बेचैनी यहाँ की शांति में मुझे सोने नहीं दे रही

    दीवारों पर सीलन से वहाँ एक ख़ास गंध आती थी

    नाक में खुजली पैदा करती वह परेशानी अब नहीं है पर नया रंग-रोगन है

    लगता है किसी पेंट-फैक्ट्री में खड़ा हूँ

    पिछले दरवाज़े कुछ कमज़ोर थे अधिक मनुष्य

    कमज़ोर होना ही मनुष्य होना नहीं है पर ताक़तवरों की भीड़ में

    मनुष्यता जहाँ मिलती है वहीं तो पुकार सकता है उसे एक कवि

    यहाँ दरवाज़े इतने मज़बूत कि लगता है अंदर ही फँस जाऊँगा

    रात बाहर एक बिल्ली रोती थी तो अंदर कुत्ता भौंकता था

    मैं इस जुगलबंदी के बीच पढ़ता-लिखता रहता था

    यह मुझे प्रिय थी

    यहाँ अरोड़ा जी शराब पीकर बहकते और अपने एकाकी जीवन को गरियाते हैं

    कुत्ता भी एकाध बार गुर्रा कर चुप हो जाता है

    बहरहाल, यह घर है नया

    जिसके नए बंद और अमूमन साफ़ रहने वाले कमरे में भी

    मेरी प्यारी रोज़ झाड़ू-पोंछा लगाती है

    पता नहीं कौन-सा दु:ख है

    जिसे वह अपने इस निरर्थक-से लगते काम से जताती है

    या फिर मेरी तरह उसे भी पुराने की कुछ याद आती है

    पुराना घर पुराना था इतना कि ढह सकता था किसी भी साल

    तेज़ पहाड़ी बरसात में

    जानता हूँ

    इस तरह टूट रहे मकानों में नहीं रहा जा सकता

    पर टूटे सपनों के बीच रहा जा सकता है

    वे आपके सिर पर नहीं गिर पड़ते

    अक्सर सहारा ही देते हैं इस नए घर की तरह।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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