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गार्हस्थ्य

garhasthy

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

गार्हस्थ्य

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    41

    धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन।

    स्थिर आश्रयदाता रहा, उनको गृही अदीन॥

    42

    उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन।

    जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन॥

    43

    पितर देव फिर अतिथि जन, बंधु स्वयं मिल पाँच।

    इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच॥

    44

    पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश।

    जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट होगा वंश॥

    45

    प्रेम-युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण।

    तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण॥

    46

    धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलाएगा निज धर्म।

    ग्रहण करे वह किसलिए, फिर अपराश्रम धर्म॥

    47

    भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ।

    साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ॥

    48

    अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह।

    क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह॥

    49

    जीवन ही गार्हस्थ्य का, कहलाता है धर्म।

    अच्छा हो यदि वह बना, जन-निंदा बिन धर्म॥

    50

    इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान।

    देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल: भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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