वह पता नहीं कितने समय से टँगा रहा था
बाबा के कंधे पर
बाद फिर पिता के कंधे पर
पिता को उसकी पगड़ी पहनाई गई थी
बाबा की तेरही के दिन
पिता ख़ूब रोते रहे रोती रही घर की सभी औरतें
मैं उस समय चुप
सोच रहा था कि मुझे भी रोना चाहिए या नहीं
देखता सब कुछ
निर्दोष-विचलित
पगड़ी दी गई थी पिता को
अब वह ख़ानदान के मालिक थे
उनके सिर से उठकर वह
अब आ गई थी कंधे पर एक ज़िम्मेवारी की तरह
उनके न रहने पर जिसे सौंपा जाना था
घर के किसी और योग्य व्यक्ति को
कि सबसे बड़े बेटे को
घर का सबसे बड़ा बेटा मैं
बहुत दिन हुए छोड़ आया हूँ गाँव का वह घर
पिता के गमछे की छाया उनके मालिकत्व और स्नेह की परछाई
दूर चला आया हूँ इस शहर में
लेकिन मैं जानता हूँ एक दिन जब नहीं रहेंगे पिता
गमछे की पगड़ी पहनाई जाएगी मुझे भी
पिता को याद कर रोऊँगा मैं भी ज़ार-ज़ार
सोचकर यह कि उनके अंतिम समय में
नहीं रह पाया मैं उनके पास
कोई सेवा-टहल नहीं कर पाया पिता का
गमछा मेरे कंधे पर आकर बैठ जाएगा
उम्र भर के लिए जैसे पिता की आत्मा
हर रात मैं दौड़कर जाऊँगा अपने गाँव अपने खेत
पेड़ों के बीच
जिनकी रक्षा की ज़िम्मेवारी मेरी
और हाँफते हुए पसीने-पसीने उठ बैठूँगा
नरम बिस्तर पर भी घबराया
और एक दिन मैं छोड़कर चला जाऊँगा वह गमछा
घर की रेंगनी पर सूखता-लहराता
इस संबंधहीन समय में
इस विश्वास के बिना ही
कि उसे कोई योग्य घर का
कि कोई बड़ा बेटा
धारण करेगा एक और पगड़ी के रूप में
मेरे ज़ेहन में हाँफते हुए गाँव-घर को बचाएगा
चला जाऊँगा मैं एक दिन समय के पार
और गमछा वह लटका रहेगा सदियों वहीं
उसी घर की रेंगनी पर
पृथ्वी और आकाश के बीच
एक कंधे की प्रतीक्षा में।
- रचनाकार : विमलेश त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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