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गगरी

gagri

इंदिरा संत

और अधिकइंदिरा संत

    पनघट से लौटते हुए, कल कहीं

    छलका वह

    गगरी में के पानी के ऊपर...

    और पैरों के नीचे की कोहरे की राह पिघली।

    सिर पर की भरी हुई गगरी तैरने लगी

    तरल पंख की तरह, घबराए हुए...

    दुष्ट नटखट रात उसी में

    एक-एक सितारा डाल रही है...

    आज सवेरे पनघट पर जाते हुए

    गगरी गगरी रही,

    ख़ालीपन का पानी बन गया...

    हरा समुद्र

    जो क्षितिज पर टकरा रहा है...

    —पसीना डबडबाया, कुंकुम भीग गया,

    टूटे निश्वासों पर क़दम अड़ गए,

    ढोकर थकी... विश्व सिर पर।

    किनारे तक भरी बेसक राह देख रही है—

    क्षण में नीचे जाए

    टूटे काँच की तरह

    काले ठीकरे

    पूरे भीग जाए... बह जाए

    जल-धाराओं में... उस प्रलय में...

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 569)
    • रचनाकार : इंदिरा संत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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