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गधा

gadha

विष्णु नागर

और अधिकविष्णु नागर

    अगर गधा

    कुर्सी पर बैठा हो

    तो पहली बार ऐसा लगता है कि नहीं यह उतना गधा नहीं था

    जितना कि हम इसे समझ रहे थे

    लेकिन हमारी राय फिर भी यही रहती है कि

    अंततः यह है तो गधा ही

    और आज नहीं तो कल यह सिद्ध हो जाएगा

    लेकिन कल भी जब वह गधा सिद्ध नहीं होता

    तो हम कहते हैं कि है तो यह गधा मगर

    कुर्सी ने इसे सिखा दिया है

    कि गधे को भी कम से कम

    घोड़ा तो दिखना ही चाहिए

    इसलिए अभी तक यह बचा हुआ है

    और एक दिन जब यह सिद्ध हो जाएगा

    कि यह गधा है उसी दिन से इसका खेल बिगड़ जाएगा

    उस दिन के आने से पहले गधे से हमारा एक अर्जेंट काम निकल आता है

    और मन ही मन गधे को गधा मानते हुए भी हम गधे की शरण में जाते हैं

    और जब गधा हमारे साथ इज़्ज़त से पेश आता है

    तो हम यह मानने को बाध्य हो जाते हैं

    कि नहीं यह गधा नहीं था

    हमें इसे अभी तक ग़लत समझ रहे थे

    और जब एक दिन वह रास्ते में

    हमें एक लात जमा देता है

    या क़रीब आकर पेशाब कर देता है

    तो हम फिर से अपनी राय बदलते हैं

    कि यह गधा है और सौ परसेंट गधा है

    लेकिन हम कह नहीं पाते अबे गधे

    और जब वह हमसे कहता है कि सड़क पर ठीक से चला करो

    तो वाक़ई हमें लगता है कि ग़लती हमारी ही थी

    और हम सड़क से नीचे चलना सीखकर

    अपनी ग़लती ज़िंदगी भर के लिए सुधार लेते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विष्णु नागर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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