“…it is a tale
Told by an idiot, full of sound and fury
Signifying nothing.”
-Shakespeare (Macbeth Act V Sc. IV)
अंधकार,
गाढांधकार,
तन पर आकर गरजकर उठ-उठ गिर-गिर घहराकर घिरने
वाला काला बादल
: पी लिया रे, सागर मयखाने में फेनिल व्हिस्की सोडा :
कबंध हाथ अपना फैलाकर घेर लिया है माया बाज़ार घोड़ा
निगल लिया है दंडकारण्य को काले धुएँ ने घेरकर
कलकत्ता, बंबई, मद्रास, बैंगलोर, धारवाड़ को भी।
शीत देश का धवल हिम झींगुर झी-झी कर रहा है
कश्मीर से रामेश्वर तक।
पग-पग पर नीचे सुरंग खुदी है, चीत्कार कर खड़ी हैं
चंडि, रणचंडि, चामुंडि चारों ओर
वसंत में भी अजीब ठंडक।
पूर्व दिशा में उदित रवि अब आ गया है पश्चिम,
अपर-मध्य के हाथ वह तो बिक गया रे,
पर के लिए कातर कीचड़ में कुंठित कमल
इह की मिट्टी को खाकर मुरझा गया रे।
लाख-लाख कुली मज़दूर परिवार
अपनी ही जठराग्नि में जल गया रे।
आवृत्त हुई अमावस्या टिड्डी-दल का दबदबा कोलाहल :
किसने दबोचकर हटा दी तम के नाले की ढक्कन?
क्या बढ़ आया यम के भैंसों से जुता कोच? :
बेकार मिलें झूठी सीटी देकर मचा रही हैं हल्ला
निशा चक्रव्यूह में कर्ण कर घुमा रहा है सोंटा।
शिव ध्यान मग्न हैं, कैलास में अविघ्न
भूतगण कर रहा है अनाड़ी नृत्य मदमत्त होकर,
गज-कर्ण पाने के शाप से खिन्न होकर
बैठ गया है विघ्नेश्वर मिष्टान्नों की अटारी पर।
तीस कोटि मंदिर हैं शून्य, शून्य गर्भगृह :
भग्न विग्रह की दीप-नाड़ी भी स्तब्ध,
अंधकासुर अपना केश बिखेरकर
बजा रहा है रुग्ण घंटी की नग्न घंटामणि
सर्वत्र हवा में जलने-भुनने का शोर-गुल, गोठ की बदबू,
ओखली में भैया कूटने की आवाज़,
कोल्हू में बालू पीसने की करकराहट,
घर के बाग में संगतराश का आटोप, छत पर
चट्टान की कड़कड़ाहट, भूत-प्रेत-पिशाच-शैतान
‘ए ल् ल् ल् ल् के हू’
काली झंडी लिए निकल पड़े हैं नारा बुलंद कर,
गाँव-गाँव, गली-गली
अंतरिक्ष में उछल-कूद कर रहे हैं, जीभ फाड़-फाड़कर,
अहा, जीभ खरोंच-खरोंचकर,
ताड़ी पीकर पीट रहे हैं पवन ढोल,
तम सागर अल्लोल कल्लोल
रात-भर में आतिशबाज़ी की अठखेली
दिमाग़ चूर-चूर, ख़ाली खप्पर, सीसे की तिलमिलाती अंधी आँखें,
कील छूटकर, कंठ-यंत्र अतंत्र होकर पटरी से
फिसलकर जा पड़ा था नाली में
पल-पल बीसों दुर्घटनाएँ आसमान में, ज़मीन पर, पाताल में,
फटे दिमाग़ के चूर भूत का आकार लेकर रोडेजिन
के गले पर जा बैठे हैं;
फुदक रहे हैं नगर-नगर, डगर-डगर, मठ-मंदिर,
मस्जिद-गिरजाघर में,
स्कूल-कॉलेजों में,
जलसों-जुलूसों में
होटलों में, चित्र-मंदिरों में,
पार्लियामेंट की वेदी पर, हर पीठ पर और फाटक पर
मुँह फाड़-फाड़कर पीब बहा-बहाकर
क्षण-क्षण में ज़ोर-ज़ोर से बजा बजाकर,
सींगे टेढ़ी कर रहे हैं चारों ओर
हटो राह से, हटो राह से, दूर भागो,
बैठे हुए, खड़े हुए, सोए हुए, सब-के-सब
उठो रे उठो, आगे बढ़ो, चिल्लाओ गले की नली के फटने तक
घोड़े पर, गधे पर, मोटर पर, साइकिल पर, या पैदल ही
किसी तरह आगे दौड़ो, बैठने वालों को कुचलो,
कोने में बैठकर सोचने वाले घातको, उठो,
वरना फिर न उठ सकोगे।
कहाँ क्यों, यह पूछने वाला कायर है,
‘रुको’ कहने वाला एक बड़ा मूर्ख है,
सम्मुख आने वाले से बढ़कर कोई शठ नहीं है
राह पर जो भी रोड़ा अटकाए उसे हटाकर, काटकर करकर गले में
धारे रुंडमाला,
बीच रास्ते में, वाह! प्रलय-लीला,
घर में, मंदिर में, स्कूल में भी देखो
खुल रहा है हमारा रास्ता,
: वह रास्ता, कैसी अव्यवस्था! :
दौड़ने वाला ही धीर है, चिल्लाने वाला ही वीर है,
मनुकुलोद्धारक, महा-गंभीर,
पट्टी बँधी है हमारे अश्वदेवता की आँखों पर :
पालागन महा प्रभो :
दो में दो मिलाने पर चार कहने वाले रिएक्शनरी को पटको,
काटो, कूटो,
हमारे देवता का बालक बन बनाओ,
चूर-चूर हुआ तो? बस, छोड़ दो,
मानवता हरी हो गई, मरा तो क्या हुआ नीच मनुज?
क्या वह है तुम्हारा अनुज!
या तुम हो उसके अनुज
ऐसी बूर्ज्वा-बुद्धि के लिए एक ही इलाज़,
यज्ञ-पशु अज, मुँह बंद करो, आओ याजि,
पीट-पीटकर इसे मारो,
इसका रक्त अति शुचिकर, इससे बढ़कर देवगण
के लिए और क्या रुचिकर,
चाहिए नहीं दूसरा हविष्य,
इसी तरह उत्तर आएगा हमारा स्वर्ग अपवर्ग इसी रास्ते के
उस पार आख़िरी छोर में,
हमारे घर के सम्मुख अस्तबल में
इस कुंभीपाक में जगह नहीं उस द्रोही को जो कल की बात पर
विश्वास नहीं करता,
ज़रूरत बड़ी है दौड़ने की, चिल्लाने की
दौड़ो रे दौड़ो, चिल्लाओ रे चिल्लाओ, चिल्लाओ,
जो गिरा सो गिरा, जो उठा सो उठा, होड़ लगाकर जीतने वाला
जीत गया,
कमज़ोर पैरों का कायर, कंकाल खुर-पुट के नीचे दब गया।
विजयी को भी सिद्ध है गहरा गड्डा,
यह तो विधि के व्यापारों से भी अबद्ध
...Call no man happy till he dies.
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 137)
- रचनाकार : गोपालकृष्ण अडिग
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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