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कोई आवाज़ साफ़-साफ़

koi avaz saaf saaf

चंद्रेश्वर

अन्य

अन्य

चंद्रेश्वर

कोई आवाज़ साफ़-साफ़

चंद्रेश्वर

और अधिकचंद्रेश्वर

    क्या दरबारियों का भी रहा है

    कभी कोई संघ-संगठन

    क्या किसी राजा के दरबार में

    दरबारी सोचते हैं

    सबके हित-अहित के बारे में

    सत्ता के शीर्ष पर जो होता है

    उसके आस-पास

    दिखने वाले जमावड़े में

    शामिल हरेक चेहरा

    चमकता दिखता है

    सिर्फ़ बाहर से ही

    झूठ-मूठ

    उन सबके दिलों में तो

    पसरी रहती है

    कालिमा ही कालिमा

    दरबार में तो होता है

    हर कोई अकेला ही

    अपने ही लिए

    जुगाड़ कि तिकड़म में मस्त

    कि व्यस्त कि पस्त

    वैसे दरबारीपन की मूल प्रवृत्ति ही

    वैसी है जो अकेला बनाती है

    हर दरबारी को

    एक-दूसरे से अलग करती है उन्हें

    नवरत्न तो कहने भर को

    होते हैं नवरत्न

    वे तो होते हैं शापित

    अलग होना ही

    नियति होती है उनकी

    राग दरबारी कोई ऐसा राग नहीं

    जो जोड़ता हो सबको

    यह राग बदल जाता है

    अंततः हुवाँ-हुवाँ में

    जहाँ सुनाई नहीं देती

    कोई आवाज़ साफ़-साफ़

    पर दिलचस्प बात तो यही है कि

    हुवाँ-हुवाँ ही कर्णप्रिय लगने लगता है

    शीर्ष पर बैठे राजा को!

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंद्रेश्वर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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