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चिन्तनक बेलामे

chintnak belame

बिभूति आनंद

अन्य

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बिभूति आनंद

चिन्तनक बेलामे

बिभूति आनंद

और अधिकबिभूति आनंद

    तँ रवि सेहो ओभरटाइममे चलि जाइत छै

    यूनियन-लीडर सेहो पनिसोखा बनि जाइत छै

    हम-अहाँ मूनल कोठी जकाँ ठाढ़क ठाढ़े रहि जाइत छी

    एहन सन स्थितिमे

    जेना भोरसँ खटल पसेना

    साँझ होइत-होइत बेगारी भऽ जाइत हो।

    हम तँ सोचैत छी

    एहन लोक सीढ़ी लऽकऽ बौआइत अछि

    भर पबिते

    सीढ़ी टेकि/चढ़ि निश्चिन्त भऽ जाइत अछि

    प्रत्येक कोशिशक एकेटा परिणाम होइत छै—

    साँझक चूल्हिक धूआँ निकलबा सांती

    झिंगुरक आवाज जकाँ

    टोल महल्ला समदाउन भऽ उठैत छै

    एहन सन स्थितिमे किछु लोक एहन होइये

    जे मुसहरीक डंटा जकाँ

    कोनो बातकेँ तानऽपर विश्वास रखैये

    आँचर तरमे झाँपल बेन जकाँ

    क्यो बातकेँ बिलहैत अछि

    बुरका पहिरने कोनो मौगी जकाँ

    क्यो झाँपनि उठा तकैये, मुदा

    दोसरक नजरि पड़िते पट बन्नकऽ लैये

    ओना, खानगी सभ क्यो जनैत छी; जे

    जे सभसँ पैघ चोर अछि

    सभसँ पैघ आस्तिक अछि

    अही मृगतृष्णामे बौआइत किछु अमरुख

    तकैत घुरैत अछि तीर्थस्थान

    जाहिमे भेटै ओकरा 'बिरला-भगवान'!

    चिंतनक एही सभ क्रममे

    हमर मोन आब बैरागी बनि गेल अछि मीत

    तेँ हमर अपेक्षा रहत, जे

    नहि सुनाबी आब आर कोनो समदाउन

    अहाँक एहि गीतसँ नीक पराती

    जे पसरमे कोनो बाध दिससँ बहराइत अछि

    होइत भोरक निर्देश-सूत्र गीत

    हमर सम्पूर्ण ओझरायल तन्तुकेँ झंकृतकऽ देलक अछि

    तेँ

    जँ चाहैत छी सुनाबऽ कोनो लोक-राग

    तँ सुनाउ

    अल्हा-रूदल आकि लोरिक-सलहेस

    हम भङठल लालटेन जकाँ

    आर अधिक धुआँइत रहब नहि चाहैत छी

    भोजनमे आंकड़ जकाँ

    अखड़ैये आब कोनो अनर्गल प्रलाप

    झखड़ल आकि टुटल आमक गाछ जकाँ

    अहाँ एना उदास किये भऽ गेलहुँ?

    हम कला-प्रेमी छी अबस्स,

    मुदा एखन हमरा नहि चाही कला

    जाहिसँ जनमैत होइक कोनो रविशंकर

    कि कोनो बिस्मिल्ला खाँ

    कि कोनो रामचतुर मल्लिक

    हमरालोकनि नेतसँ बइमान बनि गेल छी

    एखनो तमाम ताम-झामकेँ

    अपन संस्कारमे चिल्लड़ जकाँ साटि रखबामे

    गौरव-बोध करैत छी

    पंडित जीक पतरा मुल्ला जीक एक अल्फाज मात्रपर

    जिनगी व्यर्थमे कुरबानकऽ सकैत छी

    मुदा मनुक्ख एकदम्मे निसभेर नहि अछि

    बुझि रहल अछि

    जे की होइत छै टिटहीक टाङ

    आनुवांशिकताक भूआकेँ

    देहपरसँ गोटा-गोटी फेकि रहल अछि

    तेँ

    आजुक एहि चिन्तनक बेलामे मीत

    नहि सुनाबी एहन कोनो बाजा

    जे निन्नकेँ बजबैत अछि, आकि

    कोनो श्रीमन्तक आदेशपर कुहकैत अछि

    जँ सुनाबऽ चाहैत छी, तँ सुनाउ

    मारूबाजा

    जे गामसँ लऽकऽ राजमहल धरि

    एके धुनमे बजैत होइ...

    स्रोत :
    • पुस्तक : उपक्रम (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : बिभूति आनन्द
    • प्रकाशन : भवानी प्रकाशन
    • संस्करण : 1984

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